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होती है, जहाँ शीतलता हो वहाँ अमृत हो कोई आश्चर्य नहीं, इसलिए चंद्रमा का नाम औषधिपति भी है। आयुर्वेद के अनुसार पूर्णिमा की रात को पन्द्रह मिनट चन्द्र-दर्शन से नेत्र ज्योति बढ़ती है । चाँदनी शीतल, आँखों के लिए हितकर और प्रकाश बिखेरती है, यह उसका वैशिष्ट्य है, इसी प्रकार 'चंदेसुनिम्मलयरा' पद को ज्योति - केन्द्र पर श्वेत रंग में जपने से अथवा ध्यान करने से यहां से अमृत स्राव होता है जिसके कारण कुछ-कुछ विशिष्टताएं उजागर तथा उपलब्ध होने लगती हैं । जैसे, आचारात्मक प्रवृत्तियों का विकास, स्वभाव नियंत्रण, कषाय उपशांति, आत्मानुशासन का विकास, आरोग्य, विवेक आदि की प्राप्ति ।
वृद्धावस्था से मुक्ति : ज्योतिकेन्द्र प्रेक्षा
चित्त को ललाट के मध्य भाग में (तिलक का स्थान ) ज्योति - केन्द्र पर केन्द्रित करें और वहां पर चमकते हुए श्वेत रंग का ध्यान करें। जैसे पूर्णिमा का चांद उग रहा है और उसकी सफेद रश्मियां ज्योति केन्द्र पर बरस रही हैं अथवा अन्य किसी चमकती हुई श्वेत वस्तु का आलम्बन लें। (प्रारंभ में रंग स्थिर न हो पाए, तो पुनः अभ्यास करें) (पांच मिनट बाद ) अब चित्त को पूरे ललाट पर फैलायें, पूरे ललाट पर सफेद रंग का ध्यान करें कि श्वेत रंग के परमाणु पूरे ललाट के भीतर तक प्रवेश कर रहे हैं। पूरा ललाट सफेद रंग के परमाणुओं से भर गया है । चहुं ओर परमशांति व आनंद का अनुभव करें। ( सात मिनट ) । तीन दीर्घश्वास के साथ प्रयोग को संपन्न करें ।
तालु तल से जीभ का स्पर्श कर मस्तिष्क की प्रसुप्त एवं अविज्ञात शक्तियों को जागृत एवं प्रदीप्त किया जा सकता है। वैज्ञानिक दृष्टि से इन्हें पिनियल और पिच्चटरी का स्थान कहा जाता है । ' णमो अरहंताणं' इस पद्य को १०८ बार माला के रूप में उच्चरित करने से ण और णं पर तालु तल से जीभ का स्पर्श होने से २१६ बार यहां घर्षण होता है, जिसके नियमित अभ्यास से मस्तिष्क की पिनियल, पिच्युटरी, हाइपोथेलेमस प्रभावित होकर संतुलित होने लगते हैं। जब हाइपोथेलेमस का नियंत्रण मानव के आवेगों पर होता है तब पिनियल पिच्युटरी प्रभावित होती है । इसके स्राव एड्रीनल को प्रभावित करते हैं । परिणाम स्वरूप हिंसात्मक उत्तेजनाएं कम होती हैं। क्योंकि भावों के अनुसार स्राव, स्राव के अनुसार व्यवहार और व्यवहार के अनुसार आचरण बनता 1
विश्लेषण से संश्लेषण की प्रक्रिया
विभिन्न योगिक क्रियाओं, मुद्राओं, प्राणायाम एवं एकाग्रता का विकास कर
चंदेसु निम्मलयरा / ४१