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शक्ति की अभिवृद्धि के साथ-साथ शनैः-शनैः जीवन पोषक सकारात्मक विचार, संतुलित एवं उत्तम व्यवहार जीवन का अंग ही बन जाते हैं । व्यक्तित्व के सर्वांगीण विकास एवं व्यवहार में परिवर्तन तथा चित्त की निर्मलता हेतु प्रत्येक व्यक्ति को ध्यान का अभ्यास करना चाहिए ।
आचार्यश्री महाप्रज्ञजी ने लोगस्स में निर्दिष्ट 'समाहिवरमुत्तमं दिंतु' मंत्र को सबसे बड़ी मंगल भावना कहा है। उन्होंने उसकी प्राप्ति का उपाय भी इस स्तव में निम्नोक्त पद्य में खोज निकाला जो अत्यन्त उपयोगी, महत्त्वपूर्ण एवं ध्यान साधना का अभिनव प्रयोग है।
चंदेसु निम्मलयरा आइच्येसु अहियं पयासयरा । सागरवरगंभीरा सिद्धा सिद्धिं मम दिसंतु ॥
सचमुच यह सिद्धि का साधन है, अध्यात्म विकास का मंत्र है। यह भावना का बहुत बड़ा प्रयोग है। पहले चरण का अर्थ है - चंद्रमा की भांति निर्मल । दूसरे चरण का अर्थ है - सूर्य की भांति प्रकाशक । तीसरे चरण का अर्थ है - समुद्र की भांति गंभीर और चौथे चरण का अर्थ है - जो सिद्ध हैं वे हमें सिद्धि प्रदान करें । यह बहुत साधारण-सा अर्थ लगता है परन्तु श्रद्धा और समर्पण के साथ जिसने तादात्म्य स्थापित किया उसे ऐसा लगेगा कि यह क्या हो गया। बड़ा अजीब-सा हो रहा है। जिसने प्रयोग नहीं किया वह कह सकता है कि यह क्या?
यह चौबीस तीर्थंकरों की तथा अनंत सिद्धों की स्तुति का मंत्र है। कभी वे भी हमारे जैसे ही पुरुष थे । ध्यान साधना के उत्कृष्ट प्रयोगों के द्वारा अहंकार व ममकार का विलय कर उन्होंने सत्य व धर्म के प्रति अपना पूर्ण समर्पण कर दिया अतः वे ऐसे मंगलमय बन गये कि उनके प्रति समर्पण करने वाला व्यक्ति भी स्वयं मंगलमय बन जाता है। चारों दिशाएं उसके लिए मंगलमय बन जाती हैं। भावना और जीवन की सफलता का यह प्रयोग मात्र जानने व लिखने का नहीं, अवश्य करणीय है । "
परम पूज्य गुरुदेव आचार्य श्री महाप्रज्ञजी उदयपुर पधारे। गुरु गोविंद सिंह विद्यालय में जीवन विज्ञान के प्रयोग चले। उस समय वहां की प्रिंसिपल नियाज बेग थी। उसने अनुरोध किया - पूज्यवर ! आप एक बार हमारे विद्यालय में पधारें और हमारे विद्यालय में जीवन विज्ञान के प्रयोग देखें । आचार्य श्री महाप्रज्ञजी वहां पधारे। प्रयोग के बाद आपने विद्यार्थियों से बात की। उनके अनुभव सुने ।
अनेक विद्यार्थियों ने कहा- गुरुजी ! पहले हमें गुस्सा बहुत आता था, ज्योतिकेन्द्र प्रेक्षा का नियमित प्रयोग करने के बाद गुस्सा आना कम हो गया है।
समाहिवर मुत्तमं दिंतु-२ / ३३