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समाधि : एक विमर्श
__योगसूत्र में बताया गया है कि मनुष्यों की चित्तवृत्ति के निरोध का नाम ही योग है। योग शास्त्र में राजयोग को श्रेष्ठ माना है। राजयोग का नामान्तर है-समाधि। गीता में जो योग के आठ अंग बताये हैं उनमें समाधि को साधना का शिखर माना गया है। महर्षि पातञ्जल के अनुसार 'निर्विचार वैशारोऽध्यात्मप्रसादः-विकल्प शून्यता से जो निर्मलता प्राप्त होती है, वह आत्मा की प्रसन्न्ता का हेतु है। भगवान महावीर ने कहा-'समयं तत्थुवेहाए अप्पाणं विप्पसायए-पुरुष अपने जीवन में समता का आचरण कर आत्मा को प्रसन्न करे।
वास्तव में मन का निग्रह बहुत कठिन है। यह एक विरोचित कार्य है अतः लग्न, धैर्य, अध्यवसाय, बुद्धिमानी पूर्वक इसके अभ्यास में लग जाना चाहिए। अभ्यास और वैराग्य-इन दो शब्दों में श्री कृष्ण ने मनोनिग्रह का सारा रहस्य ही व्यक्त कर दिया।
श्री रामकृष्ण परमहंस ने कहा-अभ्यास करो फिर देखोगे मन को जिस ओर ले जाओगे उसी ओर जायेगा। मन धोबी के यहां का कपड़ा है जैसा रंग चाहो वैसा चढ़ जायेगा। इसके लिए१. मन पर संयम पाने की इच्छाशक्ति को दृढ़ बनाना पड़ता है। २. मन के स्वभाव को जानना पड़ता है। ३. हमें कुछ साधना प्रणालियां स्वीकार कर विचारपूर्वक उनका नियमित
अभ्यास करना पड़ता है। ४. मन को उच्च विचारों और उदात्त अन्तःप्रेरणा की खुराक देनी चाहिए।
इस प्रकार मनोनिग्रह की साधनाओं का अभ्यास करने के लिए हमें जीवन की कतिपय अपरिहार्य बातों को विवेकपूर्वक स्वीकार कर एक अनुकूल भीतरी वातावरण निर्मित करना पड़ता है। भीतरी परिवर्तन ही मनोनिग्रह का रचनात्मक
और विधेयात्मक पहलू है। इस सच्चाई को समझना जरूरी है कि संसार बाहर है, उसे बाहर ढूँढे और समाधि अपने भीतर है उसे अपने भीतर खोजें परन्तु लोग विपरीत चलते हैं अन्दर में संसार बसाते हैं और बाहर समाधि और सिद्धत्व खोजते हैं। सुई अगर कमरे में गुम हुई है तो छत पर कैसे मिलेगी, उसको वहां ढूंढ़ना व्यर्थ
मनोनिग्रह के विघ्न १. आलस्य २. अनियमित निद्रा
समाहिवर मुत्तमं दितु-१ / २५