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देता है, संबल देता है, साहस देता है, सहारा देता है और अनुकूल वातावरण को भी निर्मित करता है तथा यह घटना इस बात को भी स्पष्ट करती है कि गुरु घट-घट के ज्ञाता और भविष्य द्रष्टा होते हैं । उनके इंगित को समझने वाला सुखी और सफल होता है ।
मृत्यु और कायोत्सर्ग में अन्तर
कायोत्सर्ग जैन साधना की विशिष्ट प्रक्रिया है । इसका शाब्दिक अर्थ है चैतन्य जागरण के साथ शरीर का उत्सर्ग । प्रश्न हो सकता है क्या मृत्यु कायोत्सर्ग नहीं है? क्योंकि उस समय भी शरीर का उत्सर्ग होता है । इस प्रश्न का समाधान कायोत्सर्ग की परिभाषा में ही खोजा जा सकता है - चैतन्य जागरण के साथ शरीर का उत्सर्ग कायोत्सर्ग है। आचार्य श्री महाप्रज्ञजी के शब्दों में “मैं शरीर हूँ यह अनुभूति जाने अनजाने सुदीर्घ काल से चल रही है । जिस क्षण शरीर की मूर्च्छा टूट जाती है, मैं शरीर नहीं हूँ यह चेतना जागृत हो जाती है, तब कायोत्सर्ग संपन्न होता है। मन का ममत्व नहीं छूटता इसलिए मौत के क्षण में काया के छूट जाने पर कायोत्सर्ग नहीं होता । जिस समय मूर्च्छा का बंधन शिथिल हो जाता है, उस क्षण शरीर का तनाव मिट जाता है, कायोत्सर्ग अपने आप सध जाता है।"१६
कायोत्सर्ग का प्रयोगिक अर्थ
कायोत्सर्ग का प्रायोगिक अर्थ है-शिथिलीकरण - श्वास को शांत करना, शरीर की चेष्टाओं को शांत करना, मन को खाली करना । शिथिलीकरण से शरीर शिक्षित होता है वह मन की आज्ञा का पालन करता है । शिथिलीकरण से मस्तिष्क को विश्राम मिलता है, नाड़ी संस्थान को विश्राम मिलता है । शिथिलीकरण का गहन अभ्यास होने पर प्रत्येक कोशिका को विश्राम की स्थिति में लाया जा सकता है ।
शिथिलीकरण का प्रयोग "
कायोत्सर्ग की मुद्रा, आँखें बंद, श्वास मंद। शरीर को स्थिर, शिथिल और तनाव मुक्त करें । मेरुदण्ड और गर्दन को सीधा रखें, अकड़न न हो । मांसपेशियों को ढीला छोड़ें। शरीर की पकड़ को छोड़ दें ।
प्रत्येक अवयव में शीशे की भांति भारीपन का अनुभव करें।
प्रत्येक अवयव में रुई की भांति हल्केपन का अनुभव करें।
शरीर के प्रत्येक अवयव को शिथिल करें और प्रत्येक अवयव के प्रति जागरूक बने ।
७६ / लोगस्स - एक साधना - २