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लोगस्स-मंत्र गर्भित स्तवन
लोगस्स में भक्ति की भागीरथी प्रवाहित हो रही है। साधक जब इसका पाठ करता है तो उसका हृदय भक्ति रस से आप्लावित हुए बिना नहीं रह सकता। वह अनुभूति निश्चय ही अलौकिक आनंद युक्त होती है, जब भक्त अपने प्रभु की स्तुति में अपने आपको विस्मृत करके उन्हीं के चरणों में स्वयं को समर्पित कर देता है। कवि ने बहुत यथार्थ कहा है
मुझ को कहाँ ढूढे रे बन्दे।
मैं तो तेरे पास में ॥ यह चिरन्तन सत्य हमें किसी ग्रंथ में नहीं, स्वयं अपने भीतर ही मिलेगा। भक्ति योग में अनुशासन की आवश्यकता है। भक्त शब्द-प्रतीकों का या मंत्रों का सहारा लेता है। मंत्र रहस्यमय छोटे समूह हैं फिर इनसे आगे लम्बी स्तुतियां, स्तोत्र, स्तवन और भजन भी हैं।
लोगस्स आगम विवर्णित मंत्र गर्भित एवं मृत्युजंयी स्तवन है। इसमें मंत्रों के अक्षरों की ऐसी अपूर्व और अनूठी संयोजना है कि इसके स्तवन से सब मनोरथ सिद्ध होते हैं। इसका एक-एक अक्षर और वर्ण शक्तिपुञ्ज है क्योंकि प्रत्येक अक्षर अक्षय की ओर संकेत करता है। प्रत्येक वर्ण स्वर्ण से बहुमूल्य है क्योंकि इसमें अर्हत् भक्ति का परम पीयूष भरा है। जैन वाङ्मय में यह महत्त्वपूर्ण पाठ माना गया है। इसमें वर्तमान चौबीसी के परम उपकारी वीतराग तीर्थंकरों की स्तुति की गई है, जिन्होंने विश्व को धर्म का मार्ग दिखाया, अहिंसा और सत्य की राह दर्शायी, ज्ञान-दर्शन की अनंत ज्योति दिखलाई तथा इस संसार सागर से तिर कर उन्हीं के सम कर्म-मुक्त हो अपना कार्य सिद्ध करने की प्रेरणा दी। अतएव हम सब पर उनका महान उपकार है। इस दृष्टि से उनका स्मरण और स्तुति करना हमारा परम कर्तव्य है। उनके नाम में अपार व असीम बल है। उनके नाम स्मरण से भक्त क्या-क्या प्राप्त नहीं कर सकता? श्री मज्जयाचार्य ने चौबीसी की उन्नीसवीं गीतिका में लिखा है-मानसिक, वाचिक और कायिक स्थिरता साधकर एकत्व की अनुभूति के साथ तीर्थंकर की स्तुति, स्मृति अथवा नाम मंत्र का जप करने से अनिष्ट/अमंगल नष्ट होते हैं। आन्तरिक संताप/तनाव समाप्त होते हैं।' लोगस्स का जप भावितात्मा बनने का महानतम प्रयोग है। यह जहाँ एक ओर तेजस्विता, निर्मलता और गंभीरता प्राप्ति का सर्वोत्तम एवं अचूक मंत्र है, वहीं दुसरी ओर एक ऐसा अमोघ शस्त्र है कि जिसके निकट रहते दुःख, क्लेश, रोग, शोक, दरिद्रता, सभी कष्ट दूर हो जाते हैं।
लोगस्स एक सर्वे / ६३