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एक माला हो जायेगी। कुछ दिनों पश्चात उन युवकों में से एक युवक युवाचार्य श्री के चरणों में उपस्थित हुआ और कृतज्ञता ज्ञापित करते हुए बोला-आपने हमारे पर बड़ी कृपा की। उस दिन आपकी प्रेरणा से मैंने रात्रि शयन से पूर्व श्वास के साथ माला फेरनी शुरू की। पहले दिन से ही चमत्कार हो गया। मैं बहुत वर्षों से अनिद्रा का रोगी था। अनेकों उपचार के दौरान भी मुझे कोई विशेष लाभ नहीं हुआ, पर जिस दिन से मैंने यह प्रयोग प्रारंभ किया, मानसिक शांति के साथ-साथ मैं इस अनिद्रा के रोग से भी मुक्त हो गया। जिज्ञासा का होना संभव है कि ऐसा कैसे हुआ? कारण स्पष्ट है कि तरल पानी में रंग घुल जाता है और वही पानी जब जमकर बर्फ बन जाता है तब उस पर रंग डालते ही वह ऊपर की सतह से बह जाता है। इसी प्रकार एकाग्र या संकल्प शक्ति वाले स्थिर मन पर बाहरी विकार अपना प्रभाव नहीं डाल सकते, चाहे वे शारीरिक हो या मानसिक। ४. प्राक्तन् संस्कार
ज्ञान की प्राप्ति प्रमुखतः दो प्रकार से होती है१. प्राक्तन् संस्कारों से २. गुरु आदि के निमित्त से
पूर्व जन्म में संपादित भक्ति एवं उपासना से उत्थित संस्कार अपर योनि में भी प्रकट हो जाते हैं, जो स्तुति के मूल आधार बनते हैं अर्थात् सत्संग या गुरु के उपदेश का निमित्त मिले बिना सहज ही पूर्व जन्म के संस्कारों के प्रभाव से स्तुति का प्रणयन होना या रुचि जागृत होना। इन प्राक्तन् संस्कारों की भी स्तुति में महत्त्वपूर्ण भूमिका रहती है। ५. आत्मविलय
स्तुति में आत्मविलय की प्रधानता रहती है। कुछ ऐसी स्तुतियां हैं जिनमें भक्त, भगवान के गुणों के अतिरिक्त वस्तुओं का निषेध करते-करते अन्त में अपना ही निषेध कर स्तव्य स्वरूप ही हो जाता है। सिद्धि में सबसे अधिक सहायक है अपने इष्ट में लीन हो जाना। ऋषि प्रज्ञा के धनी आचार्यश्री महाप्रज्ञजी का मानना है कि “पहले लक्ष्य का निर्धारण करो। फिर डेढ़ घंटे तक उसके प्रति एकाग्र होकर लय की स्थिति में चले जाओ। सिद्धि तुम्हारा दरवाजा खटखटायेगी"। ६. अद्वैत की प्रतिष्ठा
अद्वैत अर्थात् अभिन्न। स्तोता और स्तव्य का भेद समाप्त कर अभेद साध लेना ही अद्वैत की साधना है। अद्वैत होने से मैं और प्रभु का भेद नहीं रहता।
स्तुति और मनोविज्ञान / ४६