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५. स्तुति और मनोविज्ञान
महापुरुषों की शक्ति आपदाओं में विशेष प्रकट होती है जैसे अगर की गंध अग्नि में विशेष प्रकट होती है। अतः न केवल आध्यात्मिक एवं धार्मिक दृष्टि से ही स्तुतियों का महत्त्व है बल्कि साहित्यिक, मनोवैज्ञानिक, वैज्ञानिक, सामाजिक आदि दृष्टिकोणों से भी इनकी उपयुज्यता सिद्ध है। आवश्यकता है मात्र धैर्य, विश्वास, सूक्ष्म मेया और शोधात्मक पृष्ठभूमि के निर्माण की।
जीवन की मंगलमयता का उपादान व्यक्ति स्वयं है क्योंकि व्यक्ति का आचार ही मानव को मानवता के श्रेष्ठ सिंहासन पर आसीन करता है। डॉक्टर राधाकृष्णन् के अनुसार “संस्कृति, मानसिक शांति और सहिष्णुता मानव के सच्चे आभूषण हैं। इनकी महत्ता शारीरिक स्वास्थ्य एवं ऐश्वर्य से कहीं अधिक है।" प्राणी विज्ञान की अपेक्षा मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है तो मनोविज्ञान की अपेक्षा मनुष्य एक उत्कृष्ट मन वाला प्राणी है। मानसिक, वैचारिक अशांति को दूर करने हेतु मन का निर्मलीकरण व परिष्कार अपरिहार्य है।
चेतना को प्रभावित एवं परिष्कृत करने में स्तुति की महत्ता निर्विवाद है। यह अचेतन मन को जागृत करने की एक मनोवैज्ञानिक विधि है। मंत्रों एवं स्तुतियों के द्वारा जैविक रासायनिक परिवर्तन भी संभव है। प्रत्येक शब्द के उच्चारण का अपना एक विशेष प्रभाव होता है। शरीर और मन-इन दोनों पर उसका असर होता है। अध्यात्म की दृष्टि से एक ही मंत्र के अनेक प्रकार के प्रयोग विविध अर्थों में प्रयुक्त होते हैं, उदाहरणार्थ ‘णमो अरहंताणं'-इस मंत्र जप से कषाय क्षीण होते हैं। कषाय क्षीणता के लिए णमो अरहताणं जप की विधि निम्न प्रकार से उपलब्ध है।
णमो अरहंताणं-तैजस-केन्द्र पर-क्रोध क्षय णमो अरहताणं-आनंद-केन्द्र पर-मान क्षय णमो अरहताणं-विशुद्धि-केन्द्र पर-माया क्षय
णमो अरहंताणं-ब्रह्म केन्द्र (तालु) पर-लोभ क्षय ४६ / लोगस्स-एक साधना-१