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१. अहिंसा २. इंद्रिय - दमन ३. जीवदया ४. क्षमा ५. शम - वैराग्य ६. तितिक्षा ७. ध्यान ८. सत्य
जो व्यक्ति उपरोक्त भाव पूष्पों से तीर्थंकरों की अर्चा (स्तुति) करता है वह स्वयं अर्चित, वंदित और स्तुत्य होकर कृतकर्मों को क्षीण कर देता है । प्रस्तुत प्रकरण का प्रतिपाद्य है
अर्हतों की अर्चा आत्म-विशुद्धि के लिए की जाती है । आत्म-विधि का परिणाम है - निर्जरा ।
भौतिक सिद्धियों के उद्देश्य से अर्हतों की पूजा / अर्चा नहीं होती ।
यदि किसी को पूजा / अर्चना के द्वारा भौतिक सुखों की प्राप्ति होती है तो मानना चाहिए कि वे तो मार्ग में पड़ने वाले पुण्य जन्य पड़ाव हैं ।
अर्हतों की पूजा करने का तात्पर्य- भाव पूजा, गुणोत्कीर्तन, स्तवना आदि ।
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निष्कर्ष
अर्हत् वीतराग चेतना से युक्त होते हैं। सभी प्राणियों के प्रति उनका तुल्य भाव रहता है। उनकी वाणी असाधारण तथा अद्वितीय होती है। उनकी यह विशेष ऋद्धि है कि वे एक साथ सभी के संशयों का निवारण कर सकते हैं। अचिन्त्य गुण संपदा से युक्त होने के कारण वे युगपत् कथन करने में समर्थ होते हैं । शक्र स्तुति में विवर्णित उनके स्वरूप एवं अतिशय विशेषताओं का अध्ययन करने से यह निष्कर्ष निकलता है कि विकृति या विजातीय तत्त्वों से मुक्त होने के कारण उनमें पारदर्शिता तथा विशुद्ध लेश्या का प्रभाव अचिन्त्य होता है । उसी निर्मल भावधारा के कारण उनका सारा शरीर रश्मिमय हो जाता है । उनके रोम-रोम, अणु-अणु से सहज कांति टपकती है। व्यक्ति उस सौन्दर्य से अभिभूत हो जाता है। आभा शरीर से निःसृत होने वाला सहज सौन्दर्य है । निर्युक्तिकार ने तो यहां तक कहा है कि यदि तीर्थंकर सतत धर्म देशना देते रहें तो श्रोता अपना पूरा जीवन उनके पास सर्दी-गर्मी, भूख-प्यास, परिश्रम आदि भयों से अतीत होकर बिता देता है । "
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लोगस्स में इस प्रकार निर्मल वीतराग आत्माओं की स्तुति की गई है । जिनके चरणों में झुकने वाला केवल उनकी प्राण ऊर्जा का ही ग्रहण नहीं करता अपितु चेतना का रूपान्तरण और अतीन्द्रिय क्षमताओं को जागरण भी करता है । ऐसे निर्मल चेता वीतरागी तीर्थंकरों की स्तुति करने वाला भी अपनी श्रद्धा और संकल्प - निष्ठा के कारण उन क्षमताओं को जागृत व जीवंत करने में सक्षम होता है । निष्पक्ष और निर्मल हृदय वाले तीर्थंकरों की स्तुति करने से ही हममें निष्पक्षता और निर्मलता पैदा हो सकती है ।
४४ / लोगस्स - एक साधना-१