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निष्कर्ष
तीनों लोक के ऊपर लोकान्त (मोक्ष स्थान) में सिद्ध परमात्मा का निवास है। वे शाश्वत ज्ञान व सुख के आगार हैं, पुण्य और पाप से निर्लिप्त हैं। केवल निर्मल ध्यान से ही उसकी प्राप्ति संभव है। मलिन दर्पण में रूप दिखाई नहीं देता, यह सत्य तथ्य है। इसी प्रकार मलिन चित्त में, चित्त की चंचलता में परमात्मा का भान नहीं होता। परमात्मा विश्व के मस्तक पर विराजमान है और विश्व उनके ज्ञान में क्योंकि वह सबको जानता है। जैन दर्शन के अनुसार सिद्ध परमात्मा अनेक हैं, उनमें कोई अन्तर नहीं है। सबका स्वरूप एक समान हैं। वह न तो इन्द्रिय गम्य है और न केवल शास्त्राभ्यास से ही उसे जान सकते है। वह केवल एक निर्मल ध्यान का विषय है। निष्कर्षतः कहा जा सकता है कि मुक्ति तो वह शक्ति है जो जीव को शिवत्व और सिद्धत्व की आभा से दैदीप्यमान बनाती है। अर्हत् परमात्मा के मांगलिक वचनों से आत्मा का कालुष्य क्षीण होता है, कषाय जन्य अशांति दूर होती है और विकारों पर विजय प्राप्त की जा सकती है। जीवन में आनंद हिलोरे लेने लगता है। एक विकारहीन आदर्श का स्वरूप सामने रहने से राग-द्वेष जन्य विकारों का शमन होता है और मनुष्य की आत्मा आध्यात्मिक विकास के सोपान पार करने लगती है। अतः विनय, निष्ठा और श्रद्धा के साथ महान आत्माओं की चरण रज सिर पर धारण करने से अथवा स्तुति आदि के माध्यम से उनका उत्कीर्तन करने से न केवल चित्तस्थैर्य और मन को शांति ही प्राप्त होती है बल्कि आत्मा का सम्यक् विकास होता है। उसमें पंच परमेष्ठी के गुण समाविष्ट हो जाते हैं। संदर्भ १. आवश्यक भाष्य-४६ २. आयारों की अर्हत् वाणी-श्लोक/७८ ३. आचारांग श्रुत स्कन्ध-१, अध्ययन ५, उद्देशा ४, सूत्र ५४७ ४. उत्तराध्ययन-अध्ययन ३, श्लोक १२ ५. आचारांग श्रुत स्कन्ध-२, १५/१ ६. विवेकानंद साहित्य-खण्ड, ४, पृ. १८६ ७. अभिधान चिंतामणि/सत्तरिसय ठाण वृत्ति, गाथा, १६२-१६३ ८. भगवती सूत्र-१२/६ ६. आवश्यक सूत्र-अध्ययन-६
जैन वाङ्मय में स्तुति / ३३