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________________ बनते हैं तो सुख की उर्मियां उछलने लगती हैं परिणाम स्वरूप अव्याबाधता की भावना बलवती होने लगती है। क्योंकि जब कोई बाधा ही नहीं है तो दुःख भी नहीं रहा सुख ही सुख रह गया। धार्मिक कर्म ग्रंथिय भाषा में सबसे बड़ी बाधा है-कर्म। कर्मों का ही अभाव हो गया तो बाधा स्वयं ही निःशेष हो गई। भौतिक जगत् में रोग आदि अनेक प्रकार की बाधाएं हैं। इसी की समाप्ति को अभिव्यक्ति देते हुए शक्रस्तव में सिद्धों का गुण 'अरुय' भी बताया गया है। रोग के साथ दुःख, शोक आदि सभी की समाप्ति हो जाती है। संक्षेप में सिद्ध पद के जप व ध्यान से अव्याबाध सुख की भावना दृढ़ होती है। ---परमात्मा को दर्शन कैसे हो सकते हैं? शांति कैसे मिल सकती है? एक बहन की इन जिज्ञासाओं का समाधान करने हेतु एक दिन एक महात्माजी उसके घर भिक्षार्थ आए। महात्मा के भिक्षापात्र में कचरा देखकर वह बहन बोली"महात्माजी! इसमें गृहित भिक्षा भी अशुद्ध हो जायेगी।" प्रत्युत्तर में महात्माजी ने शांत भाव से कहा-“बहन! यह तुम्हारे प्रश्न का उत्तर है। चित्त रूपी पात्र को शुद्ध कर लो, परमात्मा के दर्शन स्वतः हो जायेंगे।" इसी तथ्य की पुष्टि में कबीर की पंक्तिया अवलोकनीय हैं मैं जानू हरि दूर है, हरि है हिरदय मांय। आगे टाटी कपट की, ताते दीसे नाय ॥ वास्तव में मन को क्षीर समुद्र बनाने से ही तीर्थंकरत्व का अवतरण होता है। शिव का निवास भी क्षीर सागर में माना है। तीर्थंकर की माता चौदह स्वप्न देखती है उनमें एक क्षीर सागर का स्वप्न भी देखती है। स्वामी विवेकानंद ने धर्म को शाश्वत आत्मा का शाश्वत ब्रह्म से शाश्वत संबंध कहा है। आधुनिक विज्ञान के पिता अलबर्ट आइंस्टीन ने कहा-“जीवन का जो उद्देश्य मेरे सामने हमेशा चमकता रहा वह है-भलाई, सौन्दर्य और सत्य।" पातञ्जलि कहते हैं-"वीतराग विषयं वा चित्तं" अर्थात् वह चित्त में स्थित हो जाता है जो वीतराग को अपना विषय बनाता है। निष्कर्ष यही निकलता है कि परमात्मा अपने भीतर है। परमात्मा हमारा स्वभाव सिद्ध अधिकार है इसलिए अपने में होना ही परमात्मा में तन्मय होना है। जो परमात्मा में तन्मय है वह सुख-दुःख में नहीं आनंद में है। हमारे श्रद्धा रूपी हृदय मंदिर में सदैव परमात्मा की ही ज्योति जगमगानी चाहिए। परमात्मा का स्वरूप देव योनि में असंख्य देव तथा देव वाचक अन्य देव रागादि दोषों से युक्त २८ । लोगस्स-एक साधना-१
SR No.032418
Book TitleLogassa Ek Sadhna Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPunyayashashreeji
PublisherAdarsh Sahitya Sangh Prakashan
Publication Year2012
Total Pages254
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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