________________
आत्म-निवेदन से परिपूर्ण अनेक स्तोत्र-काव्यों का प्रणयन हुआ है। श्रुतकेवली आचार्य भद्रबाहु कृत 'उवसग्गहर स्तोत्र', आचार्य समंतभद्र कृत 'स्वयंभू स्तोत्र', 'देवागम स्तोत्र', 'युक्तानुशासन', 'जिनशतकालंकार', आचार्य मानतुंग का 'भक्तामर स्तोत्र', आचार्य सिद्धसेन का 'कल्याण मंदिर स्तोत्र', 'द्वात्रिंशिकाएं', मानदेव सूरि द्वारा विरचित 'तिजय पहुत स्तोत्र', मुनि सुंदरसूरि रचित 'संतिकर स्तोत्र', नंदीषण मुनि का ‘अजित शांति स्तवन', आचार्य हेमचंद विरचित 'अयोग व्यवच्छेद द्वात्रिंशिका'
और 'अन्ययोग व्यवच्छेद द्वात्रिंशिका', प्रज्ञाचक्षु महाकवि श्रीपाल विरचित 'सर्व निजपति स्तुति', जय तिलकसूरि कृत 'चतुर्हारावली चित्रस्तव', विवेकसागर कृत 'वीतराग स्तव', नयचंद सूरिकृत 'स्तंभ पार्श्व स्तव', आचार्य कुंदकुंद द्वारा निर्मित 'तित्थयर शुद्धि', 'सिद्ध भक्ति', जयाचार्यश्री (आचार्य श्री जीतमलजी) का 'चतुर्विंशति-स्तवन', 'चौबीसी (छोटी व बड़ी)', आचार्य तुलसी का 'चतुर्विंशति स्तवन' (चतुर्विंशति गुण-गेय-गीतिः), आचार्य श्री महाप्रज्ञजी का 'सिद्ध स्तवन', आचार्य जयमल की 'बड़ी साधु वंदना' इत्यादि स्तुतिपरक ग्रंथ इस क्रम में विशेष उल्लेखनीय एवं विमर्शनीय हैं।
उपरोक्त स्तोत्र जहां भगवत्भक्ति से ओतप्रोत हैं, वहां चामत्कारिक रूप से कष्टों, चिंताओं एवं विपत्तियों का निवारण करने वाले भी हैं। उनके विविध पद्यों के विशेषपाठ से अनिष्ट-हरण की अनेक घटनाएं भी इतिहास प्रसिद्ध हैं। उक्त सभी स्तोत्र उच्च आध्यात्मिक एवं भक्ति भावनाओं से परिपूर्ण होने के कारण
आंतरिक मंगल के उत्प्रेरक हैं। बाह्य मंगलों की अपेक्षा आंतरिक मंगल सदैव उच्च स्तरीय होते हैं। अतएव इनके स्मरण से स्तोता को मांगलिक जीवन जीने की प्रेरणा मिलती है, उच्चारण से प्राणों का ऊर्वीकरण होता है, ज्ञानियों और वीतराग आत्माओं के प्रति नम्रता होने से ज्ञान का विकास होता है। अतः मंगल भावनाओं से परिपूर्ण ये आध्यात्मिक स्तोत्र जगत में मांगल्य भावनाओं को वृद्धिंगत करते हैं।
उपर्युक्त स्तुति सर्वेक्षण के निष्कर्ष रूप में कहा जा सकता है कि हिंदुओं में 'नमो नारायणं', बौद्धों में 'बुद्धं शरणं गच्छामि' और जैनों में ‘णमों अरहताणं'-इन मंत्रपदों में वस्तुतः गुणों के उस स्वरूप को ही नमस्कार करके, उनकी शरण में जाने को कहा गया है और यह भारतीय परंपरा की बहती धारा है कि साधुता को सभी ने नमस्कार किया है। अलबत्ता एक आश्चर्य भरा साम्य सभी की एकता को प्रकट कर रहा है। जैसे जैनों के तीर्थंकर चौबीस, बौद्धों के दीपंकर चौबीस, मुसलमानों के पयंबर चौबीस और हिंदुओं के अवतार भी चौबीस हुए हैं और अपनी इसी आध्यात्मिक संपदा के कारण भारत जगद्गुरु के नाम से विश्रुत रहा है।
८ / लोगस्स-एक साधना-१