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१. भावनामय-हृदय से किया जाने वाला निःशब्द स्तवन। कीर्तन की यह
व्याख्या सर्वोच्च और अंतिम है। २. स्वरमय-इसमें लयबद्ध रटन होता है। शब्दों का सामंजस्य, स्वर का माधुर्य
और साहचर्य होता है।
भक्ति का ऐश्वर्य, शब्दों का सौन्दर्य और स्वाभाविक माधुर्य के सामंजस्य का नाम ही है कीर्तन। सम्पूर्ण लोगस्स पाठ में कीर्तन शब्द दो बार प्रयुक्त हुआ है-प्रथम बार “कित्तइस्स"-भक्त की पहचान के रूप में दूसरी बार "कित्तिय"भगवत् सत्ता की पहचान के रूप में। __भोजन की तरह कीर्तन के समय भी मुँह से भिन्न-भिन्न रस उत्पन्न होते हैं। विज्ञान के अनुसार मुंह स्थित भिन्न-भिन्न स्वाद ग्रंथियों से सवित रस ऊपर सूक्ष्म अन्तरिक्ष शक्तिधारा से उतरती हुई परम पावन शक्ति का और धरती से ऊपर की ओर आती पवित्र ऊर्जा शक्ति का आकर्षण करता है। कीर्तन में भक्ति की प्रमुखता होती है। भक्ति में एकाग्रता और स्थिरता के पश्चात ध्यानावस्था आती है, अतएव भक्ति की समाप्ति ही ध्यान है। लोगस्स साढ़े तीन आवर्त्त का स्पेक्ट्रम है। सात गाथाओं के सात रंगों में कीर्तन और भावना के दो रंग सम्मिलित होकर नव रंगों के माध्यम से स्पेक्ट्रम बनकर यह हमारे अनंत जन्मों के कर्मों को समाप्त कर देता है। शर्त सिर्फ इतनी ही है कि ये कीर्तन मस्तिष्क के दूसरे विभाग अवचेतन तक पहुँचने चाहिए।
सामान्यतः मस्तिष्क के दस विभाग हैं, प्रथम चेतन मन का शेष नौ अचेतन मन के। प्रथम विभाग स्थित चेतन मन जैसे भाव पैदा करता है वैसा ही शेष नौ भाग काम करते हैं। बर्फ पानी में तैरता है, नौ भाग अन्दर रहते हैं हमें केवल दसवां भाग ही दिखाई देता है। यही हमारे मस्तिष्क की स्थिति है। हमारे रटन, स्मरण, कीर्तन, वंदन, नमन, स्तवन आदि सब भावात्मक प्रवाह पहले प्रथम विभाग में ही जमा होते हैं। जब वे आवर्तन रूप में सघन हो जाते हैं तब वे सक्रिय बनकर अवचेतन मन में चले जाते हैं। इस प्रकार कीर्तन से समाधि तक कदम-कदम चलता हुआ एक दिन साधक साध्य को सिद्ध करने में सफल हो जाता है। ध्यान अथवा अर्हत्-सिद्ध स्तुति के निरन्तर अभ्यास के बिना अध्यात्म विकास के सूक्ष्म रहस्यों को हस्तगत करना असंभव प्रतीत होता है। सूक्ष्म रहस्यों को समझे बिना आध्यात्मिक चेतना के अंतरंग पथ को पकड़ पाना भी असंभव है। यह साधना ही आत्मा को कर्मों से मुक्त करने का सही मार्ग है। अतः अपेक्षा है कर्म सिद्धान्त रूपी साहित्य का तलस्पर्शी अध्ययन कर तत्त्व ज्ञान की गहराई में जाकर अध्यात्म के रहस्यों को पकड़ने का अभ्यास किया जाए। जैसे-बंध क्या है? जीव कर्म बंध
लोगस्स : रोगोपशमन की एक प्रक्रिया । 183