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अर्थात् मैं ज्योतिर्मय हूँ, आनंदमय हूँ, स्वस्थ हूँ, निर्विकार हूँ, वीर्यवान हूँ।१४ उपरोक्त पवित्र संकल्पों को रात्रि शयन और प्रातः जागरण के समय स्थिर और पवित्र मन से अनुप्रेक्षा पूर्वक करना चाहिए।
साधना की सफलता के लिए दृढ़ आस्था का होना अनिवार्य है। उसके होने पर भी यदि दीर्घकाल तक न चले तो भी सफलता संभव नहीं है, दीर्घकालिक अभ्यास होने पर भी यदि वह निरन्तर न चले उस स्थिति में भी साधक सफल नहीं हो सकता है। इन सबके होने पर भी बंधन-विलय से प्राप्त योग्यता अपेक्षित रहती है। इन सबका समुचित योग होने पर जो असंभव प्रतीत होता है, वह संभव बन जाता है।
. निष्कर्ष के रूप में कहा जा सकता है कि दिव्यता चेतना का नवनीत अर्थात् सारभूत तत्त्व है। मनुष्य मूलतः दिव्य है तथा चेतना के विकास द्वारा दिव्यत्व का प्रस्फुटन करना मानव का न केवल कर्तव्य है बल्कि उसके जीवन की कृतार्थता भी है, और यही कृतार्थता है "तित्थयरा मे पसीयंतु"। संदर्भ १. समवायांग-२५वां अतिशय
समतावाणी ३. भक्तामर-श्लोक १६ ४. भक्तामर एक दिव्य दृष्टि पृ./८०
कल्याण मंदिर-८ ६. जैन भारती, फरवरी १६६०, पृ./१८२ ७. जैन भारती, नवम्बर १६६८ पृ./३८ ८. महावीर की साधना का रहस्य-पृ./१८६ ६. जयधवलासदिहे कसाय पाहुडे प्रथम अर्थाधिकार, पृ./१६ १०. मन का कायाकल्प-पृ./१२७, १२८ ११. मन का कायाकल्प-पृ./१३२ १२. वही-पृ./१२६ १३. स्वागत करे उजालों का, पृ./११४ १४. मनोनुशासनम् छठा प्रकरण-२६, २७, पृ./१५३
१६० / लोगस्स-एक साधना-१