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भावनात्मक तनावों से मुक्ति मिलती है। योगासन से जब इन स्थानों पर क्रिया नियमन का अभ्यास किया जाता है तो अन्तःस्रावी ग्रंथियों के सतत होने वाले स्राव
और उनका शरीर मनोवृत्त प्रभाव भी नियमित होता है। इसी नियमन के परिणामस्वरूप योगी का शरीर कांतिमान, विशेष प्रभामंडल युक्त, स्वस्थ, सुडौल, उत्साही, निरोग तथा विशेष स्मृति, बुद्धि और इंद्रियाँ पराक्रम युक्त हो जाती हैं। अन्तःस्रावी ग्रंथियों के प्रभाव से होने वाली जरा और तज्जन्य प्रभाव भी मंद हो जाते हैं। अतः शरीर और मन अजर जैसी अवस्था प्राप्त करता है।
निम्नांकित कुछ प्रयोग जो आचार्यश्री महाप्रज्ञजी के साहित्य में निर्दिष्ट हैं निम्न प्रकार से हैं जिनमें से एक दो प्रयोग के नियमित अभ्यास से भी युवावस्था को कायम रखा जा सकता है१. शशांकासन २. सर्वेन्द्रिय संयम मुद्रा ३. अर्द्धमत्स्येन्द्रासन ४. जीभ को दांत के मूल में लगाकर एक मिनट अहँ ध्वनि का लयबद्ध जप
(आवाज साइलेन्ट रहेगी) ५. एक्युप्रेशर के अनुसार दाहिने हाथ की कोहिनी और पोंहचे के मध्य स्थान
पर दबाव देना। ६. ललाट के ऊपर पूर्ण चंद्रमा के समान ज्योति का ध्यान करने से कुष्टादि
रोग शांत एवं सर्वदा पीत वर्ण व उज्ज्वल ज्योति का ध्यान करने से सर्व रोगोपशमन एवं वृद्धावस्था के सर्व लक्षणों से रहित हो जाते हैं।
तीर्थंकर चन्द्र से भी अधिक निर्मल हैं। अतः ललाट पर "चंदेस निम्मलयरासिद्धा सिद्धिं मम दिसंतु" का श्वेत रंग में ध्यान आत्मोदय के सर्वोच्च शिखर अरुज-अज-अजर-अमर पद तक पहुँचाने का सोपान तो सिद्ध होगा ही परन्तु वर्तमान जीवन के लिए भी वरदान सिद्ध होगा। कवि की निम्नोक्त पंक्तियां पूर्ण समर्पण भाव को प्रदर्शित कर रही है
एकोऽहं नास्ति मे कश्चिन कस्यचित् ।
त्वहिशरणस्यस्य मम देन्यं न किंचन ॥ अर्थात् मैं अकेला हूँ, मेरा कोई नहीं है, मैं भी किसी का नहीं हूँ फिर भी तुम्हारे चरणों की शरण में स्थित हूँ इसलिए मेरे मन में किञ्चित दीनता नहीं है। अरहन्तों की शरण क्यों?
• शक्ति जागरण के लिए
• भक्ति और मुक्ति के लिए १८८ / लोगस्स-एक साधना-१