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कि पीहर जाकर मरना। अगले दिन दोनों साध्वियों के पास पहुंची और जिज्ञासा के स्वर में पूछा-महाराज! पीहर में जाकर मरना अच्छा या ससुराल जाकर। तब साध्वियों ने स्मितवदन कहा-मौत को कौन रोक सकता है? वह तो कहीं पर भी आ सकती है। तब वह बहन बोली महाराज! कल आपने ही 'लोगस्स' में मुझे यह पढ़ाया था पीहर में जाकर मरना। साध्वियों ने मुस्कान बिखेरते हुए कहा-हमने तो यह पाठ पढ़ाया “पहीणजरमरणा" अर्थात् भगवान् ! आप जरा और मृत्यु से रहित हैं। सही जानकारी पा दोनों अपनी अज्ञानता पर हंसने लगीं। उन्हें एक बोध पाठ मिला उच्चारण शुद्धि का, अन्यथा अर्थ का अनर्थ हो जाता है।
लोगस्स के इस पांचवें पद्य में तीर्थंकर भगवन्तों की पहली विशेषता रज, मल से रहित और दूसरी विशेषता जरा और मृत्यु से रहित अवस्था बताई गई है। विश्व में सबसे बड़े दो प्रकार के भय हैं. १. जरा २. मृत्यु
भय उन्हीं को रहता है जिनके कर्म शेष रहते हैं। जैसा कि पीछे बताया जा चुका है कि अर्हत् अवस्था में भगवान चार घाती कर्मों से मुक्त होते हैं और सिद्ध अवस्था में वे आठों कर्मों से मुक्त हो जाते हैं अतः स्वतः ही इस जरा और मृत्यु के भय से मुक्त हैं। न तो कभी वृद्ध होते हैं, न जरा ग्रस्त और न ही अब उन्हें कभी मरना है। मुक्त होने से पूर्व उनका जीना भी सार्थक और मरना भी सार्थक। क्योंकि जीवित रहकर वे भवी जीवों को तारते हैं और मरण प्राप्त कर सिद्ध स्वरूप को प्राप्त करते हैं और सदा, सर्वदा के लिए अजरामर हो जाते हैं।
साधक लोगस्स स्तव के दौरान स्वरूप गत विशेषता जरा-जन्म-मरण से मुक्त अर्हतों को 'तित्थयरा में पसीयंतु' कहकर अपनी प्रसन्नता और अद्वैत समर्पण प्रकट करता है। क्योंकि निश्चय नय के अनुसार तो यथार्थ यही है कि धर्म ही एक मात्र प्राणी के लिए त्राण और शरण है। उसकी आराधना करके ही जन्म, जरा, रोग, शोक, मृत्यु आदि की परम्परा को अन्तिम रूप से समाप्त करने में सक्षम होता है। धर्म की शरण का तात्पर्य अर्हत् शरण अर्थात् शुद्ध आत्मा की शरण से ही है। इसलिए कहा गया-केवलि-पण्णत्तं धम्म सरणं पवज्जामि।
धर्म एक लोकोत्तर तत्त्व है, पारमार्थिक तत्त्व है। आत्मशुद्धि का यह एक मात्र साधन है। यद्यपि यह जरा, रोग, मृत्यु जैसी स्थितियों से सीधा प्राणी को नहीं बचाता पर परिणाम रूप में परोक्षतः यही एक मात्र ऐसा तत्त्व है जो प्राणी को इनसे बचा सकता है। अनंत-अनंत प्राणी इस धर्म की शरण स्वीकार कर, आराधना कर इनकी असहनीय त्रास से सदा-सर्वदा के लिए मुक्त हुए हैं। वस्तुतः
तित्थयरा में पसीयंतु / १८५