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कहलाता है वैसे ही अध्यात्म पक्ष में आत्मा स्वर्ण है उस पर कर्म रूप मल चढ़ा है। भगवन! आपका ध्यान प्रचण्ड अग्नि है। तीव्र ध्यानाग्नि का स्पर्श पाकर कर्म मल नष्ट हो जाते हैं। आत्मा पूर्ण रूप से शुद्ध होकर सदा सर्वदा के लिए परमात्मा बन जाती है। अर्थात् मैं चैतन्य दीपक में श्रद्धा का तैल भरकर इसकी चिन्मयता को प्रकाशित करता हूँ, आपके चरणों में समर्पित होता हूँ। यही तथ्य आचार्य सिद्धसेन के भक्त हृदय से उद्भाषित हुआ है
हृदवनिती त्वयि वियो! शिथिली भवन्ति,
जन्तोः क्षणेन निविड़ा अपि कर्म बंधाः ॥ ज्योहि भक्त भगवान का ध्यान करता है भगवान को अपने मन मंदिर में विराजमान करता है त्योंहि कर्म सहसा शिथिल हो उसी प्रकार भागने लगते हैं जिस पर मोर के आगमन पर चंदन से सांप।
आचार्य मानतुंग और आचार्य सिद्धसेन की उपरोक्त रहस्यात्मक पंक्तियाँ लोगस्स के पाठ में विवर्णित विहुयरयमला के गूढ़ रहस्य को प्रकट कर रही हैं। तीर्थंकर रज (बंधते हुए कम) और मल (बंधे हुए कम) दोनों प्रकार के मलों से मुक्त हैं अतः उनके स्वरूप का ध्यान करने वाला 'तित्थयरा मे पसीयंतु' को सार्थक करता है। इस सार्थकता में सिर्फ पांच लकार लगाने की अपेक्षा है१. लक्ष्य २. लगन ३. लय ४. लीन ५. लाभ
क्योंकि शक्ति, श्रम, समय, सोच के साथ जो कार्य संपादित होता है वही जीवन को नए अर्थ, नए संदर्भ दे सकता है अन्यथा ऐसे लोग जिनके पास शक्ति है पर स्वयं पर कुछ होने का विश्वास नहीं, संकल्प नहीं, पुरुषार्थ नहीं वे अंधेरा दूर करने के लिए उठकर कभी देहली पर नन्हा सा दीप नहीं जला सकते, ऐसे लोग सार्थक जीवन नहीं जी सकते।
ज्ञान स्वरूप अर्हत् का ध्यान
____ अर्हत भाव का स्वरूपात्मक चिंतन करने से ज्ञानात्मक निर्मलता बढ़ती है। किन्तु शास्त्रकारों ने एक प्रश्न उभारा है कि ध्येय और ध्याता की इतनी दूरी होने पर अर्हत् और सिद्ध भाव हमारे में कैसे प्रकट होता है?
१८२ / लोगस्स-एक साधना-१