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थे। (तीर्थंकर नाम गोत्र का बंधकर प्रव्रज्या ग्रहण कर) वे मरकर सर्वार्थसिद्ध विमान में उत्पन्न हुए और वहाँ से च्युत होकर ऋषभ के रूप में उनका जन्म हुआ। वे इस अवसर्पिणी काल के प्रथम राजा और प्रथम तीर्थंकर हुए। उनकी राजधानी अयोध्या थी। नृप ऋषभ के भरत बाहुबली आदि सौ पुत्र, ब्राह्मी, सुन्दरी-ये दो पुत्रियां थीं। ऋषभ देव ने ब्राह्मी को लिपि अर्थात् अक्षर ज्ञान, व्याकरण, न्याय, छंद, काव्य आदि ६४ कला दी और सुन्दरी को गणित की शिक्षा देकर मानव समाज में शिक्षा का प्रारंभ किया। कला, उद्योग, नीति और व्यवस्था की शिक्षा की आदि करने के कारण ही उन्हें “आदिनाथ" के नाम से पुकारा जाता है। वे अन्त में भरत को राज्य सौंपकर स्वयं दीक्षित हो गये और श्रमण परम्परा की नींव डाली। एक हजार वर्ष तपस्या, ध्यान आदि साधना से सर्वज्ञता को उन्होंने प्राप्त किया। वे तीर्थंकर बन दुनियां को उपदेश देते हुए कैलाश पर्वत पर (अष्टापद)
अपने निन्यान्वें पुत्र व आठ पौत्रों सहित मोक्ष पधारे। भगवान ऋषभ का वर्णन विष्णु पुराण, अग्नि पुराण, भागवत् पुराण, ऋग्वेद आदि वैदिक ग्रंथों में भी विवर्णित है।
भगवान ऋषभ के पश्चात इस अवसर्पिणी काल में अन्य तेईस तीर्थंकर एक दूसरे के कुछ अन्तराल से हुए।
इस अवसर्पिणी काल के चौबीस तीर्थंकरों के नाम- .. १. भगवान ऋषभ नाथजी २. भगवान अजितनाथजी ३. भगवान रांभवनाथजी ४. भगवान अभिनंदननाथजी ५. भगवान सुमतिनाथजी
भगवान पद्मप्रभजी
भगवान सुपार्श्वनाथजी ८. भगवान चन्द्रप्रभजी ६. भगवान सुविधिनाथजी
भगवान शीतलनाथजी
भगवान श्रेयांसनाथजी १२. भगवान वासुपूज्यजी १३. भगवान विमलनाथजी १४. भगवान अनंतनाथजी १५. भगवान धर्मनाथजी १६२ / लोगस्स-एक साधना-१
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