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१. बाह्य वैभव की स्तुति
अर्हतों का बाह्य वैभव भी दो विभागों में विभक्त है१. शारीरिक वैभव-सुन्दरता, अष्टमहाप्रातिहार्य आदि २. शरीर व्यतिरिक्त वैभव
बाह्य वैभव की स्तुति में दोनों प्रकार के वैभव का कीर्तन किया जाता है। शारीरिक वैभव की स्तुति का वर्णन करते हुए आचार्य मानतुंग ने कितना सुन्दर चित्रण किया है भक्तामर स्तोत्र में
यैः शान्तराग रुचिभिः परमाणुभिस्त्वं निर्मापितस्त्रिभुवनैक-ललामभूत तावन्त एव खलु तेऽप्यणवः पृथ्वियां
यत्ते समानमपरं नहि रूपमस्ति ॥ अर्थात् तीन जगत में असाधारण तिलक समान वीतराग आभावाले परमाणुओं से तुम्हारा निर्माण किया है, वे परमाणु इस पृथ्वी पर इतने ही हैं क्योंकि इस धरती पर तुम्हारे समान रूप वाला दूसरा कोई नहीं है। यही स्तुति श्रीमज्जयाचार्य के शब्दों में निम्न प्रकार से अभिव्यक्त हुई है।
सुरेन्द्र नरेन्द्र चन्द्र ते, इन्द्राणी अभिरामी हो। निरख निरख धापै नहीं, एहवो रूप अमामी हो ॥
सुविधि भजियै शिरनामी हो । इसी प्रकार श्रीमज्जयाचार्य ने अष्टमहाप्रतिहार्य रूप शारीरिक वैभव की स्तुति में कहा है
तुम मुख कमल पासै चमरावलि, चन्द्र कांतिवत सौहे हो । हंस-श्रेणि जाणे पंकज सेवे, देखत जन-मन मोहै हो ॥ पारस देव! तुम्हारा दर्शन भाग भला सोई पावै हो ।
अर्थात् तुम्हारे मुख कमल के पास ढुलाये जा रहे चामर चन्द्रमा की कांति जैसे सुशोभित हो रहे हैं। ऐसा लगता है मानो पंक्तिबद्ध हंस नीलकमल की उपासना कर रहे हैं। इस दृश्य को देखकर जन-जन के मन मुग्ध हो जाते हैं।
. उपरोक्त शारीरिक वैभव की स्तुति में दोनों ही आचार्यों की पंक्तियां मनोहर, अनूठी और यथार्थ हैं।
शरीर व्यतिरिक्त बाह्य वैभव की स्तुति करते हुए कल्याण मंदिर स्तोत्र में आचार्य सिद्धसेन ने बहुत ही मार्मिक शब्दों में अपनी भावाभिव्यक्ति की है -
१६० / लोगस्स-एक साधना-१