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लाभ
राज्य में सम्मान प्राप्त होता है। चोरों का भय नहीं रहता।
सुख संपदा की वृद्धि होती है। निष्कर्ष
निष्कर्षतः कहा जा सकता है कि भवभ्रमण का मूल गुण-हीनता है। सद्गुणों जैसी कोई सम्पत्ति नहीं है। यह सम्पत्ति लोगस्स रूपी धर्म-चक्र से प्राप्त होती है। लोगस्स समाधि का बीजमंत्र है। ज्ञानियों ने इसे परम ज्योति सूत्र कहा है। यह राग भाव का अपनयन कर वैराग्य भाव को जागृत करने का महामंत्र है। इस स्तुति के द्वारा अहंकार व ममकार का विलय होता है। अपूर्णता (अज्ञान, मूर्छा, विघ्न) समाप्त होती है और अनंत की अनुभूति होने लगती है। अतः कर्म-चक्र के व्यूह का भेदन करने हेतु लोगस्स एक धर्मचक्र है। यही कारण है कि इसके अधिष्ठाता देवाधिदेव को 'धम्मवर चाउरंत चक्कवट्टी' कहा गया है। यह धर्मचक्र ही विश्व में सच्ची शांति स्थापित कर सकता है। चक्रवर्ती सम्राट भी धर्म चक्रवर्ती (तीर्थंकर) की पदधूली व चरणों में मस्तक नमाकर अपने आपको गौरवान्वित समझते हैं। संदर्भ १. स्थानांग १ टीका, विशेषावश्यक भाष्य, गाथा/१३८० २. वृहद् वृत्ति पत्र-५८४ ३. वही-५८४ ४. स्कन्दक पुराण, काशी खण्ड, अध्याय ६ ५. पद्मपुराण पाताल खण्ड १६/१४
स्कन्दक पुराण, काशी खण्ड-अध्याय ६ ७. उत्तराध्ययन-१२/४५ ८. वही-१२/४६ ६. महाभारत, अनुशासन पर्व अध्याय-१०८ १०. भगवई-२०/७४ ११. भगवती वृत्ति पत्र-६, श्रृत निष्ट देवतैव अर्हतां नमस्करणीयत्वात्,
सिद्धवत् इति, नमस्कुर्वन्ति व श्रुतमहन्तो 'नमस्तीर्थाय' ति भणनात।' १२. आचार चूला-१५/३२ तओ णं समणे भगवं महावीरे दाहिणेणं
वामेणं वामं पंचमुट्ठियं लोयं करेत्ता सिद्धाणं णमोक्कारं करेह। उधृत-जैन भारती फरवरी १६६८ पृ./७२ वाचना प्रमुख आचार्य तुलसी, सम्पादक विवेचक-युवाचार्य महाप्रज्ञ द्वारा विरचित “मंगल सूत्र मीमांसा" लेख से।
लोगस्स एक धर्मचक्र-२ / १५७