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न होने के कारण उनके उपदेश में कोई अन्तर नहीं हो सकता। आचारांग में कहा गया है जो अरिहंत हो गये हैं, जो अभी वर्तमान में अर्हत् हैं और जो भविष्य में अर्हत् होंगे उन सभी का एक ही उपदेश है कि किसी प्राण, भूत, जीव, सत्त्व की हिंसा मत करो, उन पर अपनी सत्ता मत जमाओं, उनको गुलाम मत बनाओं और उनको मत सताओं। यही धर्म ध्रुव है, नित्य है, शाश्वत है और विवेकी पुरुषों ने बताया है।
सभी तीर्थंकरों को अपनी विशिष्ट साधना के द्वारा राग-द्वेष के क्षीण होने पर आत्म-ज्ञान के आलोक में जो सत्य उपलब्ध होता है, उन्हें वे जन-जन तक पहुँचाते हैं। उस समय राग-द्वेष विजेता होने के कारण वे 'जिन' कहलाते हैं। जिन नाम से ही जैन धर्म प्रचलित हुआ। जिन शब्द किसी व्यक्ति विशेष का नाम न होकर यह उस आध्यात्मिक शक्ति का संबोध शब्द है जिससे व्यक्ति ने राग-द्वेष रूप प्रियता-अप्रियता की स्थिति से अपने आपको उपरत कर लिया हो। इस प्रकार 'जिन', सर्वज्ञ, अन्तश्चक्षु और ज्ञान के तेजस्वी सूर्य होते हैं।
__ जैन अनुयायियों के एक मात्र आदर्श होते हैं-'जिन'। वीतरागता से परिपूर्ण केवली 'जिन' कहलाते हैं और उनके भी इन्द्र 'जिनेन्द्र' कहलाते हैं। इस 'जिनेन्द्र' शब्द से तीर्थंकर भगवान का ग्रहण होता है। जय-जिनेन्द्र' यह अभिवादन शब्द जैनों की अतिरिक्त पहचान कराता है। जैन साधकों, आराधकों व उपासकों के लिए 'जिन' ही साध्य, आराध्य और उपास्य होते हैं। उनकी श्वास-श्वास में यह विश्वास ध्वनित होता है
जिन समरो जिन चिंतवों, जिन ध्यावो चित्त शुद्ध। ते ध्यान थी क्षण एक मां, लहो परम पद शुद्ध ॥
३. अरहते
सम्पूर्ण भारतीय साहित्य में 'अरिहंत' शब्द अतिशय पूज्य आत्मा के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है। इसका अति प्राचीन इतिहास है। जैन वाङ्मय के अति प्राचीन ग्रंथों में तो इस शब्द का प्रयोग हुआ ही है, किंतु वैदिक, बौद्ध एवं संस्कृत वाङ्मय में भी इस शब्द का प्रयोग उपलब्ध होता है। आचार्य कुन्दकुन्द ने बोध पाहुड़ में अरिहंत के गुणों का वर्णन करते हुए लिखा है
जरवाहि जम्म मरणं चउगइगमणं च पुण्णं पावं च ।
हंतूण दोष कम्मे हुउनाणमयं च अरहंतो ॥५ अर्थात् जिन्होंने जरा, व्याधि, जन्म, मरण, चतुर्गति गमन, पुण्य, पाप-इन
लोगस्स एक धर्मचक्र-२ / १४७