________________
वह वटवृक्ष तो कितनी विशाल जटा धारण करता है उसे तो मोक्ष में जाना ही चाहिए? मुंडन करने से ही मोक्ष मिलता होता तो भेड़, बकरी को मोक्ष मिल जाता? शरीर पर राख लगाने से ही मोक्ष मिलता होता तो गधा कब का ही मोक्ष पहुँच गया होता? कष्ट सहन करने मात्र से ही मोक्ष प्राप्त होता तो वृक्ष तो कितने कष्ट सहता है, उसकी मुक्ति तो होनी ही चाहिए? केवल नाम रटने से ही मुक्ति मिलती होती तो तोते की मुक्ति क्यों नहीं होती? सिर्फ ध्यान से ही मोक्ष हो जाता तो बगुला क्यों पीछे रहता? लेकिन हे साधक! केवल क्रिया से नहीं क्रिया के साथ-साथ भाव विशुद्धि होगी तब ही आत्मा शनैः शनैः शुक्ल ध्यान की तरफ बढ़ेगी और मोक्ष को प्राप्त करेगी। कर्मों के बंधन से मुक्त होगी।
तीर्थ शब्द की उपर्युक्त व्याख्याओं से यही निष्कर्ष निकलता है कि भावतीर्थ, मानस तीर्थ ही आत्मशुद्धि का साधन है। तीर्थ और तीर्थंकर __गणधर गौतम ने भगवान महावीर से पूछा-भंते! तीर्थ को तीर्थंकर कहा जाता है या तीर्थंकर को तीर्थ कहा जाता है।
भगवान ने कहा-गौतम! अर्हत् तीर्थ नहीं होते, वे तीर्थंकर होते हैं, चतुर्विध संघ तीर्थ कहलाता है।१०
इन चारों तीर्थों में प्रथम दो तीर्थ अनगार धर्म स्वीकार करने वाले व अंतिम दो तीर्थ गृहस्थ धर्म का निर्वाह करते हुए सात्विक एवं संयमित जीवन जीने वाले होते हैं। ये चारों तीर्थ जैन शासन के महास्तंभ हैं। भगवान ऋषभ से लेकर भगवान महावीर तक सभी तीर्थंकरों के प्रथम प्रवचन में ही तीर्थ स्थापना हो चुकी थी परन्तु भगवान महावीर के द्वितीय प्रवचन में धर्मतीर्थ की स्थापना हुई। भगवान महावीर के शासन में इन तीर्थों की संख्या क्रमशः १४,००० (साधु), ३६,००० (साध्विया), १ लाख ५६ हजार (श्रावक) तथा ३ लाख १८ हजार (श्राविकाएं) थीं।
जैन धर्म में तीर्थंकर को एक आदर्श प्रेरणास्रोत के रूप में माना गया है। उनसे आध्यात्मिक प्रेरणा प्राप्त होती है। जैन परम्परा में तीर्थंकर के जन्म का प्रयोजन भी धर्म की स्थापना ही होता है। संसार के प्राणियों का दुःख और पीड़ा कम हो इस उद्देश्य से तीर्थंकर तीर्थ की स्थापना करते हैं।
तीर्थंकर चतुर्विध संघ की स्थापना करके भव्य जीवों के कल्याणार्थ मार्ग प्रशस्त बनाते हैं। उनके अमृतोपम उपदेश सागर वत् गहन एवं विस्तृत हैं। उन्हें गागर में भरने तुल्य ग्यारह अंग और बारह उपांग आदि शास्त्र हैं।
अर्हत् जैसे सिद्ध को नमस्कार करते हैं वैसे श्रुत को भी नमस्कार करते हैं।
लोगस्स एक धर्मचक्र-२ / १४५