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प्रवाह सुषुम्ना में प्रवाहित होता है तब दृष्टि की अन्तर्मुखता पारदर्शी बनती है। साधक का चिंतन पर से हटकर स्व की ओर अभिमुख होता है। सुषुम्ना का कालमान बहुत कम होता है। साधना की सहायता से जब श्वास सुषुम्ना में बहने लगता है तब शुद्ध तत्त्व भाव का उदय होता है, प्रज्ञा जागती है। अनेक व्यक्तियों का मानना है कि परमात्मा की कृपा से कोऽहं का भाव जागृत होता है। कुछ तत्त्व चिंतकों का मानना है कि कारण शरीर से आगे जो महाकारण शरीर है उसके प्रभाव से व्यक्ति में 'कोऽहं' का भाव जागता है। जैन तत्त्व मनीषी मानते हैं कि मोह कर्म के उपशांत, क्षय तथा क्षयोपशम की अवस्था में जब मोह कर्म का आवरण शिथिल होता है, तब जीवन में इस नई दृष्टि का जन्म होता है। व्यक्ति सोचने लगता है-मैं कौन हूँ? कहाँ से आया हूँ? कहाँ जाऊँगा? मेरा स्वरूप क्या है? ऐसा विचार आत्मा की निर्मल अवस्था में ही संभव है।
भगवान महावीर ने कहा-आत्मा, लोक, कर्म, क्रियाएं-इन चारों को जानने वाला प्रबुद्ध आत्मा कहलाता है। क्योंकि लोकस्वरूप का चिंतन वही व्यक्ति करता है जिसमें चारों गतियों में भव भ्रमण रूप संसार, पुनर्जन्म, आत्मा तथा लोक पर दृढ़ श्रद्धान होता है। अर्थात् जो यह जानता है कि परलोक है। इस लोक में मैं शुभ व अशुभ जैसा भी कार्य करूंगा उसका फल मुझे अवश्य मिलेगा। जिसे अपनी आत्मा पर श्रद्धा है वह लोक पर अवश्य श्रद्धा करेगा। जो अपनी आत्मा पर विचार करता है वह लोक के स्वरूप का भी अवश्य विचार करेगा। हमारे आवास तथा आत्म-विकास की आधारभूमि यह लोक है। अतः लोक का स्वरूप, आकार, प्रकार क्या है? इसकी रचना के मूल तत्त्व क्या हैं? शाश्वत व नित्य क्या है? अशाश्वत व अनित्य क्या है? इत्यादि जिज्ञासाएं व्यक्ति को अन्तर्लोक की यात्रा के सोपान पर आरोहण करने का मार्ग प्रशस्त करती हैं।
डार्विन का विकासवाद पेड़-पौधों से प्रारंभ होकर मानव तक आकर समाप्त हो जाता है जबकि जैन विकासवाद सूक्ष्म निगोदिय जीवों से प्रारंभ होकर आत्मा की मुक्ति तक का विकास क्रम वर्णित करता है। जैन विकासवाद का केन्द्र आत्मा है पुद्गल, षद्रव्य, नो/सात तत्त्व, नौ पदार्थ तथा कर्म आदि का वर्णन तो है ही किंतु उसका मूल्य लक्ष्य आत्मा की मुक्ति है।
जैन तत्त्व ज्ञान की मान्यतानुसार जीव सूक्ष्म निगोद-अव्यवहार राशि से निकलकर व्यवहार राशि में आता है। फिर एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, असंज्ञी पंचेन्द्रिय, संज्ञी पंचेन्द्रिय, पशु, पक्षी तथा मानव के रूप में विकसित होकर रत्नत्रय, तप, संयम आदि की साधना करके मुक्त हो जाते हैं। जीव क्रमशः उन्नति व विशुद्धि प्राप्त करता है। भगवान महावीर की वाणी “जीवा सोहीमणुप्पत्ता"६ सम्पूर्ण विकास की प्रक्रिया को धोतित कर रही है।
१३० / लोगस्स-एक साधना-१