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पंच कल्याणक
यद्यपि तीर्थंकरों का समग्र जीवन ही एक मंगल महोत्सव होता है फिर भी जीवन की पांच घटनाओं को अत्यन्त कल्याणकारी मानकर उन्हें पंच कल्याणक कहा गया है।
पूर्व भव का आयुष्य पूरा होने पर वहां से च्यवन कर तीर्थंकरों के माता के गर्भ प्रवेश पर जो उत्सव मनाया जाता है, उसे च्यवन कल्याणक कहा जाता है।
जन्म के अवसर पर मनाया जाने वाला उत्सव जन्म कल्याणक कहलाता है।
जिस समय तीर्थंकर सन्यस्त होने हेतु संयम, धारण करते हैं उस समय मनाया जाने वाला उत्सव दीक्षा कल्याणक कहलाता है, इसे तप कल्याणक भी कहा जाता है।
साधना/तपस्या काल में जब तीर्थंकरों को दिव्य-ज्ञान/केवलज्ञान की प्राप्ति होती है उस समय मनाये जाने वाले उत्सव को केवलज्ञान कल्याणक कहते हैं।
तीर्थंकरों के मोक्ष प्राप्ति के अवसर पर मनाया गया उत्सव निर्वाण कल्याणक कहलाता है। उपरोक्त कल्याणकों का विवरण बड़े ही चामत्कारिक ढंग से किया गया है।
इन सभी उत्सवों में इन्द्रों और देवों की भूमिका अत्यधिक महत्त्वपूर्ण है। १. च्यवन कल्याणक
तीर्थंकरों के जन्म से पन्द्रह माह पूर्व सौधर्मेन्द्र अपने अवधि ज्ञान से यह जान लेता है कि तीर्थंकर च्यवन करके अमुक नगर के राजा के यहाँ जन्म लेंगे। उसके बाद वह कुबेर को बुलाकर उस नगरी को नगरवधू की तरह सजाने का और रत्नवर्षा करने का आदेश देता है। इन्द्र की आज्ञा पाकर कुबेर नगरी को अलंकृत और रत्नवृष्टि करने में लग जाता है।
उसके बाद इन्द्र देवियों को बुलाकर कहता है "तीर्थंकर स्वर्ग से छह माह बाद अमुक नगर के महाराज की रानी के गर्भ में पहुँचेंगे। जाओं, माता की सेवा में अप्रमत्त होकर लगो। ध्यान रहे, एक क्षण का भी प्रमाद न हो। तीर्थंकर जननी को तनिक भी कष्ट न हो पाये।"४
तथाऽस्तु कह देवियां माता की सेवा में पहुँच जाती हैं। छह माह बाद एक रात्रि के अंतिम प्रहर में तीर्थंकर की माता मंगल स्वप्न देखती है। यह तीर्थंकर के स्वर्ग से च्यवकर गर्भ प्रवेश का समय होता है। जैन शास्त्रों में उन स्वप्नों की संख्या चौदह मानी गई हैं। जो विशेष महत्त्व एवं अर्थ को अपने में संजोये हुए होते हैं अथवा भावी के संकेत रूप होते हैं।
लोगस्स स्वरूप मीमांसा / ११३