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दर्शन की विशुद्धि होती है । दर्शन विशुद्धि से श्रद्धा परिमार्जित होती हैं। श्रद्धा के परिमार्जन से सम्यक्त्व विशुद्ध होता है । उपसर्ग और परिषहों को सहन करने की शक्ति विकसित होती है । एवं तीर्थंकर व सिद्ध बनने की प्रेरणा मन में उद्भूत होती है । अतएव भक्ति का लक्ष्य अपने आप का साक्षात्कार है, अपने में स्थित शक्ति की अभिव्यक्ति करना है । साधक के अन्तर्मानस में जिस प्रकार की श्रद्धा या भावना होगी उसी के अनुरूप उसका जीवन बनेगा। इसी निमित्त से जैन साधना में तीर्थंकरों की स्तुति का विधान अभिनिहित है।
लोगस्स : पाठ और अर्थ
पाठ
लोगस्स
उज्जोय गरे
धम्मतित्थयरे
जिणे
अरहंते
कित्तस्सं
चविसंपि
केवली
उसभ
मजिय च
वंदे
संभव
मभिनंदणं च
सुमई च
पउमप्पहं
सुपासं
जिणंच
चंदप्पहं
वंदे
हिं
पुप्फदंतं सीअल
शब्दार्थ
लोक में
उद्योत करने वाले
धर्म तीर्थ के कर्ता
जिन (जिनेश्वर ) का ( राग-द्वेष विजेता का )
अर्हतों का
कीर्तन (स्तुति) करूगां
चौबीस
केवल ज्ञानियों का
ऋषभ
और अजित को
वंदन करता हूँ
संभव
अभिनंदन और
पद्मप्रभ को
सुपार्श्व
जिन और
चंद्रप्रभ को
वंदन करता हूँ
ध
पुष्पदंत
शीतल
लोगस्स एक विमर्श / ७७