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७. लोगस्स एक विमर्श
चतुर्विंशति स्तव करने से दर्शन की विशुद्धि होती है। दर्शन विशुद्धि से श्रद्धा परिमार्जित होती है। श्रद्धा के परिमार्जन से सम्यक्त्व विशुद्ध होता है। उपसर्ग और परिषहों को सहन करने की शक्ति विकसित होती है एवं तीर्थंकर और सिद्ध बनने की प्रेरणा मन में उद्भूत होती है। लोगस्स में जिन तीर्थंकरों की स्तुति की गई है, उनका पवित्र स्मरण साधकों के दुर्बल मन में उत्साह, बल एवं स्वाभिमान का संचार करता है। अतएव दर्शन विशोधि, बोधि, लाभ और कर्म-क्षय के लिए तीर्थंकरों का उत्कीर्तन करना चाहिए।
जिज्ञासा के स्वर में पूछा गया-सिद्ध स्वरूप को प्राप्त जिनेश्वर तो सभी पूज्य हैं फिर लोगस्स में नाम से भक्ति करने की क्या अपेक्षा है।
इस जिज्ञासा के समाधान में श्रीमद्राजचन्द्र का मंतव्य मननीय है। “अनंत सिद्ध स्वरूप का ध्यान करते हुए जो शुद्ध स्वरूप का विचार आता है वह तो कार्य है, परन्तु वे जिनसे उस स्वरूप को प्राप्त हुए वो कारण कौन से हैं? इसका विचार करते हुए उनके उग्र तप, महान वैराग्य, महान ध्यान, उत्कृष्ट अहिंसा-इन सबका स्मरण होगा। अपने अर्हत् तीर्थंकर पद में जिस नाम से वे विहार करते थे उस नाम से उनके पवित्र आचार और पवित्र चारित्र का अन्तःकरण में उदय होगा, जो उदय परिणाम में महान लाभदायक है। जैसे अर्हत् महावीर का पवित्र नाम स्मरण करने से वे कौन थे? कब हुए? उन्होंने किस प्रकार से सिद्धि पाई? इस चारित्र की स्मृति होगी और इससे.हममें वैराग्य, विवेक-इत्यादि का उदय होगा"।' उपासना क्यों?
___ गणाधिपति गुरुदेवश्री तुलसी से मुमुक्षु डॉ. शान्ता जैन ने जिज्ञासा के स्वर में पूछा-श्री मज्जयाचार्य जैन परम्परा के वर्चस्वी आचार्य थे। वीतरागता और आत्मकर्तृत्व के प्रति उनकी गहरी निष्ठा थी। फिर भी अपनी रचना 'चौबीसी' में उन्होंने स्थान-स्थान पर शरणागति को अभिव्यक्ति दी है। साधना के क्षेत्र में आत्म-कर्तृत्व और शरणागति-दोनों का समन्वय कैसे किया जाये?
लोगस्स एक विमर्श / ७५