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भगवती सूत्र
श. १३ : उ. ४ : सू. ८५-९० असंख्येय। इस प्रकार जैसे पृथ्वीकायिक जीवों की वक्तव्यता वैसे ही सबकी निरवशेष वक्तव्यता, यावत् वनस्पतिकायिक यावत् कितने वनस्पतिकायिक जीव अवगाढ हैं ?
अनंत। ८६. भंते ! धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय–इनमें कोई जीव रहने, सोने, ठहरने, बैठने और करवट बदलने में समर्थ है?
यह अर्थ संगत नहीं है। वहां अनंत जीव अवगाढ हैं। ८७. भंते ! यह किस अपेक्षा से कहा जा रहा है-धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय,
आकाशास्तिकाय–इनमें कोई जीव रहने, सोने, ठहरने, बैठने और करवट लेने में समर्थ नहीं है? वहां अनंत जीव अवगाढ हैं? गौतम ! एक यथानाम कूटागारशाला है। भीतर और बाहर दोनों ओर से पुती हुई, गुप्त, गुप्त द्वार वाली, पवन-रहित, निवात-गंभीर है । किसी पुरुष ने हजार दीपक लेकर कूटागारशाला के भीतर-भीतर अनुप्रवेश किया, अनुप्रवेश कर उस कूटागार शाला के सर्वतः समन्तात्-चारों ओर सघन, निचित, अन्तर-रहित निश्छिद्र दरवाजों के कपाटों को ढक दिया, ढककर उस कूटागारशाला के बहु मध्य देश-भाग में जघन्यतः एक, दो अथवा तीन, उत्कृष्टतः हजार दीप प्रज्वलित किए। गौतम ! क्या वे प्रदीप-लेश्याएं अन्योन्य-संबद्ध, अन्योन्य-स्पृष्ट, अन्योन्य-संबद्ध-स्पृष्ट, अन्योन्य-एकीभूत बनी हुई हैं ? हां, बनी हुई हैं। गौतम ! क्या कोई उन प्रदीप-लेश्याओं में बैठने यावत् करवट बदलने में समर्थ है? भगवन् ! यह अर्थ संगत नहीं है। वहां अनंत जीव अवगाढ हैं। गौतम ! इस अपेक्षा से यह कहा जा रहा है यावत् वहां अनंत जीव अवगाढ हैं। ८८. भंते ! लोक कहां बहु सम है? भंते! लोक कहां सर्व लघु प्रज्ञप्त है? गौतम ! इस रत्नप्रभा-पृथ्वी के उपरितन-अधस्तन-इन दो क्षुल्लक प्रतरों में यह लोक बहुसम
तथा इसी स्थान पर सर्व लघु प्रज्ञप्त है। ८९. भंते ! यह लोक कहां वक्र शरीर वाला प्रज्ञप्त है?
गौतम ! जहां विग्रह-कण्डक है-प्रदेश की हानि-वृद्धि के कारण वक्र है, वहां लोक वक्र शरीर वाला प्रज्ञप्त है। ९०. भंते ! लोक किस संस्थान वाला प्रज्ञप्त है? गौतम ! लोक सुप्रतिष्ठक संस्थान वाला प्रज्ञप्त है-निम्न भाग में विस्तीर्ण, मध्य में संक्षिप्त और ऊपर में विशाल है। वह निम्न भाग में पर्यंक के आकार वाला, मध्य में श्रेष्ठ वज्र के आकार वाला और ऊपर ऊर्ध्वमुख मृदंग के आकार वाला है। इस शाश्वत निम्न भाग में
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