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भगवती सूत्र
श. १२ : उ. ७,८ : सू. १५२-१६०
हां गौतम! अनेक अथवा अनन्त बार। १५३. भंते ! वह ऐसा ही है। भंते ! वह ऐसा ही है। ऐसा कहकर यावत् विहरण करने लगे।
आठवां उद्देशक
देवों का द्विशरीर-उपपात-पद १५४. उस काल और उस समय में यावत् इस प्रकार बोले-भंते ! क्या महान् ऋद्धि वाला यावत् महान् ऐश्वर्यशाली के रूप में प्रख्यात देव अनन्तर उस देवलोक से च्यवन कर द्विशरीर वाले नागों में उपपन्न होता है ?
हां, उपपन्न होता है। १५५. क्या वह वहां अर्चित, वंदित, पूजित, सत्कारित, सम्मानित, दिव्य (प्रधान), सत्य, सत्यावपात और सन्निहित-प्रातिहार्य होता है ?
हां, होता है। १५६. भंते ! क्या वह वहां से अनन्तर निकलकर सिद्ध यावत् सब दुःखों का अन्त करता
हां, सिद्ध यावत् सब दुःखों का अन्त करता है। १५७. भंते ! क्या महान् ऋद्धि यावत् महान् ऐश्वर्यशाली के रूप में प्रख्यात देव उस देवलोक
से अनन्तर च्यवन कर द्विशरीर वाले मणियों में उपपन्न होता है ?
हां, उपपन्न होता है। इस प्रकार नाग की भांति वक्तव्यता। १५८. भंते ! क्या महान् ऋद्धि यावत् महान् ऐश्वर्यशाली के रूप में प्रख्यात देव अनन्तर उस देवलोक से च्यवन कर द्विशरीर वाले वृक्षों में उपपन्न होता है? हां, उपपन्न होता है। इसी प्रकार पूर्ववत् वक्तव्यता, इतना विशेष है-क्या इसमें नानात्व यावत् सन्निहित-प्रातिहार्य और 'लाउल्लोइयमहित' होगा-वृक्ष का भूमिभाग गोबर आदि से लिपा हुआ और भींत खड़िया मिट्टी से पुती हुई होती है ?
हां, होती है। शेष वर्णन पूर्ववत् यावत् सब दुःखों का अन्त करता है। पंचेन्द्रिय-तिर्यग्योनिक-उपपात-पद १५९. भंते ! क्या वानरों में प्रधान, कुक्कुट में प्रधान, मेंढ़क में प्रधान ये शील-रहित, व्रत-रहित, गुण-रहित, मर्यादा-रहित, प्रत्याख्यान और पौषधोपवास से रहित, काल-मास में काल करके इस रत्नप्रभा-पृथ्वी में उत्कृष्टतः सागरोपम की स्थिति वाले नरक में नैरयिक के रूप में उपपन्न होते हैं?
श्रमण भगवान् महावीर व्याकरण करते हैं-उपपद्यमान उपपन्न होते हैं, यह वक्तव्य है। १६०. भंते ! क्या सिंह, व्याघ्र, भेड़िया, चित्तीदार तेंदुआ, रीछ, लकड़बग्घा और पराशर (वाम्बेट) ये शील-रहित, व्रत-रहित, गुण-रहित, मर्यादा-रहित, प्रत्याख्यान और
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