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श. ४१ : उ. ११३-१९६ : सू. ७६-८४
७६. भन्ते ! वह ऐसा ही है । भन्ते ! वह ऐसा ही है ।
भगवती सूत्र
एकसौ तेरहवां - एकसौ चालीसवां उद्देशक
७७. भन्ते ! मिथ्यादृष्टि - राशियुग्म कृतयुग्म नैरयिक- जीव कहां से आकर उपपन्न होते हैं.... ? इसी प्रकार यहां भी मिथ्यादृष्टि - राशियुग्म - कृतयुग्म - नैरयिक- जीवों के अभिलाप में अभवसिद्धिक- राशियुग्म कृतयुग्म - नैरयिक- जीवों के समान अट्ठाईस उद्देशक करने चाहिए । ७८. भन्ते ! वह ऐसा ही है । भन्ते ! वह ऐसा ही है।
एकसौ इकतालीसवां - एकसौ अड़सठवां उद्देशक
७९. कृष्णपाक्षिक- राशियुग्म - कृतयुग्म - नैरयिक- जीव कहां से आकर उपपन्न होते हैं.....? इस प्रकार यहां भी अभवसिद्धिक- राशियुग्म कृतयुग्म - नैरयिक- जीवों के समान अट्ठाईस उद्देश करने चाहिए ।
८०. भन्ते ! वह ऐसा ही है । भन्ते ! वह ऐसा ही है ।
एकसौ उनहत्तरवां-एकसौ छयानवेवां उद्देशक
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८१. भन्ते ! शुक्लपाक्षिक- राशियुग्म कृतयुग्म नैरयिक जीव कहां से आकर उपपन्न होते हैं.....? इस प्रकार यहां भी भवसिद्धिक- राशियुग्म - कृतयुग्म - नैरयिक- जीवों के समान अट्ठाईस उद्देश होते हैं । इस प्रकार से सभी एकसौ छयानवे उद्देशक राशियुग्म शतक के होते हैं यावत् 'शुक्ललेश्य - शुक्लपाक्षिक - राशियुग्म-कल्योज - वैमानिक तक' यावत्
८२. यदि ये जीव क्रिया सहित होते हैं तो क्या उसी भव में सिद्ध होते हैं यवत् सब दुःखों का अन्त करते हैं?
गौतम ! यह अर्थ संगत नहीं है ।
८३. भन्ते ! वह ऐसा ही है । भन्ते ! वह ऐसा ही है ।
८४. भगवान् गौतम श्रमण भगवान् महावीर को दायीं ओर से प्रारम्भ कर तीन बार प्रदक्षिणा करते हैं, वन्दन - नमस्कार करते हैं, वन्दन - नमस्कार कर वे इस प्रकार बोलते हैं- भन्ते ! यह ऐसा ही है, भन्ते ! यह तथा (संवादितापूर्ण) है, भन्ते ! यह अवितथ है, भन्ते ! यह असंदिग्ध है, भन्ते ! यह इष्ट है, भन्ते ! यह प्रतीप्सित ( प्राप्त करने के लिए इष्ट) है और भन्ते ! यह इष्ट-प्रतीप्सित है - यह अर्थ सत्य है जो आप कह रहे हैं ऐसा कह कर, अर्हत् भगवान् अपूर्ववचन वाले होते हैं (ऐसा मानकर ) श्रमण भगवान् महावीर को वन्दन - नमस्कार करते हैं, वन्दन - नमस्कार कर वे संयम और तप से अपने आपको भावित करते हुए विहरण कर रहे हैं ।
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