________________
भगवती सूत्र
श. ३४ : श. २-६ : सू. ५५-६४ गौतम ! कृष्णलेश्य - एकेन्द्रिय-जीव पांच प्रकार के प्रज्ञप्त हैं, प्रत्येक के चार भेद जैसे कृष्णलेश्य एकेन्द्रिय- शतक (भ. ३३ । २-३) में बतलाये हैं वैसे बतलाने चाहिए यावत् 'वनस्पतिकायिक' तक ।
५६. भन्ते ! कृष्णलेश्य- अपर्याप्त सूक्ष्म पृथ्वीकायिक- जीव इस रत्नप्रभा - पृथ्वी के पूर्व दिशा के चरमान्त में...? इसी प्रकार इस अभिलाप के द्वारा जैसा औधिक उद्देशक (भ. ३४।२-३२) में बतलाया गया है। वैसा ही बतलाना चाहिए यावत् 'लोक के चरमान्त' तक। सर्वत्र कृष्णलेश्य-जीवों में उत्पाद करवाना चाहिए ।
५७. भन्ते! कृष्णलेश्य अपर्याप्तक- बादर- पृथ्वीकायिक- जीवों के स्थान कहां प्रज्ञप्त हैं ? इसी प्रकार इस अभिलाप के द्वारा जैसा औघिक उद्देशक (भ. ३४ । ३३ - ४१) में बतलाया गया है वैसा बतलाना चाहिए यावत् 'तुल्य-स्थिति' तक ।
५८. भन्ते ! वह ऐसा ही है । भन्ते ! वह ऐसा ही है । ५९. इसी प्रकार इस अभिलाप के द्वारा जैसा प्रथम श्रेणी - शतक (भ. ३४ । ४२-४९) बतलाया गया वैसे ही ग्यारह उद्देशक बतलाने चाहिए ।
तीसरा- पांचवां शतक
६०. इसी प्रकार नीललेश्य- (एकेन्द्रिय-जीवों ) के साथ भी (तृतीय) शतक बताना चाहिए । इसी प्रकार भी कापोतलेश्य (एकेन्द्रिय-जीवों ) के साथ (चतुर्थ) शतक बतलाना चाहिए । भवसिद्धिक- एकेन्द्रिय-जीवों के साथ (पांचवां ) शतक बतलाना चाहिए।
छट्ठा शतक
६१. भन्ते! कृष्णलेश्य-भवसिद्धिक-एकेन्द्रिय-जीव कितने प्रकार के प्रज्ञप्त हैं ?
जिस प्रकार औधिक उद्देशक (भ. ३४।१ - ३१ ) में बतलाया गया है, वैसा ही बतलाना चाहिए ।
६२. भन्ते! अनन्तर-उपपन्न-कृष्णलेश्य-भवसिद्धिक- एकेन्द्रिय-जीव कितने प्रकार के प्रज्ञप्त हैं ? जैसा अनन्तर - उपपन्न-औधिक उद्देशक (भ. ३४।४२-४९) में बतलाया गया है वैसा ही बतलाना चाहिए ।
६३. भन्ते! परम्पर-उपपन्न - कृष्णलेश्य-भवसिद्धिक- एकेन्द्रिय-जीव कितने प्रकार के प्रज्ञप्त हैं ? गौतम ! परम्पर-उपपन्न - कृष्णलेश्य-भवसिद्धिक- एकेन्द्रिय-जीव पांच प्रकार के प्रज्ञप्त हैं, (पृथ्वीकायिक, अप्कायिक, तेजस्कायिक, वायुकायिक और वनस्पतिकायिक), प्रत्येक के चार-चार भेद (भ. ३४ । ५१-५४ ) की भांति वक्तव्य हैं, यावत् 'वनस्पतिकायिक' तक। ६४. भन्ते! परम्पर-उपपन्न - कृष्णलेश्य-भवसिद्धिक-अपर्याप्तक-सूक्ष्म-पृथ्वीकायिक- जीव इस रत्नप्रभा - पृथ्वी के (पूर्व दिशा के चरमान्त में)....? इसी प्रकार इस अभिलाप के द्वारा जैसा औघिक-उद्देशक (भ. ३४ । ५१) बतलाया गया है वैसा ही यावत् 'लोक के चरमान्त' तक बतलाना चाहिए। (जैसा पूर्व में बतलाया गया वैसा ही) सर्वत्र कृष्णलेश्य-भवसिद्धिक-जीवों में उत्पाद करवाना चाहिए ।
९१९