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भगवती सूत्र
श. ३४ : उ. १ : सू. २४-२६ २४. भन्ते! अपर्याप्त-सूक्ष्म-पृथ्वीकायिक जीव ऊर्ध्व-लोक-क्षेत्र की (बस)- नाल के बाहर के क्षेत्र में मारणान्तिक-समुद्घात से समवहत होता है, समवहत होकर जो भव्य (अपर्याप्त सूक्ष्म पृथ्वीकायिक जीव के रूप में उत्पन्न होने की योग्यता प्राप्त) अधो-लोक-क्षेत्र की (स)-नाल के बाहर के क्षेत्र में अपर्याप्त-सूक्ष्म-पृथ्वीकायिक जीव के रूप में उत्पन्न होने का योग्य है, भन्ते! वह कितने समय वाली विग्रह-गति (अन्तराल-गति) से उत्पन्न होता है? इसी प्रकार ऊर्ध्व-लोक-क्षेत्र की (बस)-नाल के बाहर के क्षेत्र में मारणान्तिक- समुदघात से समवहत होता है, (समवहत होकर) अधो-लोक-क्षेत्र की (त्रस) नाल-के बाहर के क्षेत्र में उत्पन्न होते हुए जीवों के विषय में वही गमक सम्पूर्ण रूप में बतलाना चाहिए। (भ. ३४।१४) यावत् 'बादर-वनस्पति-कायिक पर्याप्तक जीव का बादर-वनस्पतिकायिक-पर्याप्तक जीवों में उपपात' तक बतलाना चाहिए। २५. भन्ते! अपर्याप्त-सूक्ष्म-पृथ्वीकायिक जीव लोक के पूर्व दिशा के चरमान्त में मारणान्तिक-समुद्घात से समवहत होता है, समवहत होकर जो भव्य (अपर्याप्त-सूक्ष्म-पृथ्वीकायिक जीव के रूप में उत्पन्न होने की योग्यता प्राप्त) लोक के पूर्व दिशा के ही चरमान्त में अपर्याप्त-सूक्ष्म-पृथ्वीकायिक जीव के रूप में उत्पन्न होने योग्य है, भन्ते! वह कितने समय वाली विग्रह-गति (अन्तराल-गति) के द्वारा उत्पन्न होता है? गौतम! वह जीव एक समय वाली अथवा दो समय वाली अथवा तीन समय वाली अथवा चार समय वाली विग्रह-गति (अन्तराल-गति) के द्वारा उत्पन्न होता है। २६. भन्ते! यह किस अपेक्षा से कहा जा रहा है-एक समय वाली अथवा (चार समय वाली) यावत् 'उत्पन्न होता है? गौतम! मैंने इस प्रकार सात श्रेणियां प्रज्ञप्त की हैं, जैसे-ऋजुआयता यावद् 'अर्धचक्रवाला' (भ. ३४/३)। ऋजुआयताश्रेणी के द्वारा उत्पन्न होता हुआ वह जीव एक समय वाली विग्रह-गति (अन्तराल-गति) के द्वारा उत्पन्न होता है। एकतोवक्रा श्रेणी के द्वारा उत्पन्न होता हुआ वह जीव दो समय वाली विग्रह-गति (अन्तराल-गति) के द्वारा उत्पन्न होता है। द्वितोवक्रा श्रेणी के द्वारा उत्पन्न होता हुआ जो भव्य एक प्रतर में अनुश्रेणी के द्वारा (अपर्याप्त-सूक्ष्म- पृथ्वीकायिक जीव के रूप में उत्पन्न होने की योग्यता प्राप्त है), वह तीन समय वाली विग्रह-गति (अन्तराल-गति) से उत्पन्न होता है। जो भव्य विश्रेणी के द्वारा (अपर्याप्त-सूक्ष्म-पृथ्वीकायिक जीव के रूप में उत्पन्न होने की योग्यता प्राप्त है) वह चार समय वाली विग्रह-गति (अन्तराल-गति) से उत्पन्न होता है। यह इस अपेक्षा से कहा जा रहा है यावत् 'उत्पन्न होता है'। इसी प्रकार अपर्याप्त-सूक्ष्म-पृथ्वीकायिक जीव लोक के पूर्व चरमान्त में मारणान्तिक- समुद्घात से समवहत होता है, समवहत होकर लोक के पूर्व चरमान्त में ही १. अपर्याप्तक- और २. पर्याप्तक-सूक्ष्म-पृथ्वीकायिक जीवों रूप में, ३. अपर्याप्तक- और ४. पर्याप्तक-सूक्ष्म-अप्कायिक जीवों के रूप में, ५. अपर्याप्तक- और ६. पर्याप्तक-सूक्ष्म-तेजस्कायिक जीवों के रूप में, ७. अपर्याप्तक-और ८. पर्याप्तक-सूक्ष्म-वायुकायिक जीवों के रूप में, ९. अपर्याप्तक-और १०. पर्याप्तक-बादरवायुकायिक जीवों के रूप में, ११. अपर्याप्तक-और १२. पर्याप्तक-सूक्ष्म-वनस्पतिकायिक
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