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________________ भगवती सूत्र ६१६. कषाय- व्युत्सर्ग क्या है ? कषाय- व्युत्सर्ग चार प्रकार का प्रज्ञप्त हैं, जैसे- १. क्रोध - व्युत्सर्ग २. मान - व्युत्सर्ग ३. - व्युत्सर्ग ४. लोभ-व्युत्सर्ग। माया ६१७. संसार - व्युत्सर्ग क्या है ? संसार - व्युत्सर्ग चार प्रकार का प्रज्ञप्त हैं, जैसे - नैरयिक संसार - व्युत्सर्ग यावत् देव-संसार- व्युत्सर्ग। यह है संसार - व्युत्सर्ग। ६१८. कर्म - व्युत्सर्ग क्या है ? कर्म - व्युत्सर्ग आठ प्रकार का प्रज्ञप्त है, जैसे - ज्ञानावरणीय कर्म - व्युत्सर्ग यावद् अन्तराय- कर्म - व्युत्सर्ग | यह है कर्म-व्युत्सर्ग। यह है भाव व्युत्सर्ग। यह है आभ्यन्तरिक तप । ६१९. भन्ते! वह ऐसा ही है । भन्ते ! वह ऐसा ही है । I आठवां उद्देशक श. २५ : उ. ७,८ : सू. ६१६-६२१ नैरयिक आदि का पुनर्भव- पद ६२०. राजगृह नगर यावत् इस प्रकार बोले (भ. १ / १० ) - भन्ते ! नैरयिक जीव कैसे उपपन्न होते हैं ? गौतम ! जिस प्रकार कोई प्लवक ( कूदनेवाला) कूदता हुआ 'मुझे अमुक स्थान पर कूद कर जाना है' ऐसे अध्यवसाय के निर्वर्तित करण उपाय - उत्प्लवन-क्रीड़ा कौशल के द्वारा अवस्थित स्थान को छोड़ कर अग्रिम स्थान में चला जाता है, इसी प्रकार ये जीव भी प्लवनक की भांति कूदते हुए अध्यवसाय - निर्वर्तित-करण उपाय के द्वारा इस भव को छोड़कर अग्रिम भव में चले जाते हैं । - ६२१. भन्ते ! उन जीवों की गति कैसी शीघ्र होती है ? उनका गति का विषय कैसा शीघ्र प्रज्ञप्त है ? गौतम! जैसे कोई पुरुष तरुण, बलवान्, युगवान्, युवा, स्वस्थ और सधे हुये हाथों वाला है, उसके हाथ, पांव, पार्श्व, पृष्ठान्तर और ऊरु दृढ़ और विकसित हैं । समश्रेणी में स्थित दो ताल वृक्ष और परिघा के समान जिसकी भुजायें हैं, चरमेष्टक-, पाषाण, मुद्गर और मुट्ठी के प्रयोगों से जिसके शरीर के पुट्टे आदि सुदृढ़ हैं, जो आन्तरिक उत्साह - बल से युक्त हैं, लंघन, प्लवन, धावन और व्यायाम करने में समर्थ है, छेक, दक्ष, प्राप्तार्थ, कुशल, मेधावी, निपुण और सूक्ष्म शिल्प से समन्वित है। वह पुरुष संकुचित भुजा को फैलाता है, फैलाई हुई भुजा को संकुचित करता है। खुली मुट्ठी को बन्द करता है, बन्द मुट्ठी को खोलता है । खुली आंखों को बन्द करता है, बन्द आंखों को खोलता है। क्या नैरयिकों का गति-काल इतनी शीघ्रता से होता है ? ८६३ यह अर्थ संगत नहीं है । नैरयिक एक समय, दो समय अथवा तीन समय वाली विग्रह-गति से उपपन्न हो जाते हैं । इस प्रकार जैसे चौदहवें शतक के प्रथम उद्देशक (भ. १४ । ३) में यावत्
SR No.032417
Book TitleBhagwati Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanakprabhashreeji, Mahendrakumar Muni, Dhananjaykumar Muni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2013
Total Pages590
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size15 MB
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