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श. २४ : उ. १२ : सू. १९४-१९७
भगवती सूत्र आठ भव-ग्रहण। काल की अपेक्षा यथाचित वक्तव्य है। केवल इतना विशेष है-मध्यवर्ती तीनों गमकों में (चौथा, पांचवां और छट्ठा) द्वीन्द्रिय की भांति (भ. २४/१८७)। अन्तिम तीनों गमकों (सातवें, आठवें और नवें) में प्रथम गमक की भांति वक्तव्य है, केवल इतना विशेष है-स्थिति और अनुबंध जघन्यतः कोटि-पूर्व, उत्कृष्टतः भी कोटि-पूर्व। शेष पूर्ववत् । यावत् नौवें गमक में जघन्यतः बाईस-हजार-वर्ष-अधिक-कोटि-पूर्व, उत्कृष्टतः अट्ठासी-हजार-वर्ष-अधिक-चार-कोटि-पूर्व–इतने काल तक रहता है, इतने काल तक गति-आगति
करता है। १९५. (भन्ते!) यदि संज्ञी-पञ्चेन्द्रिय-तिर्यग्योनिक-जीवों से पृथ्वीकायिक-जीवों में उत्पन्न होते हैं तो क्या संख्यात वर्ष की आयु वाले संज्ञी-पंचेन्द्रिय-तिर्यग्योनिक-जीवों से उत्पन्न होते हैं? असंख्यात वर्ष की आयु वाले संज्ञी-पञ्चेन्द्रिय-तिर्यग्योनिक-जीवों से उत्पन्न होते
गौतम! संख्यात वर्ष की आयु वाले संज्ञी-पंचेन्द्रिय-तिर्यग्योनिक-जीवों से उत्पन्न होते हैं,
असंख्यात वर्ष की आयु वाले संज्ञी-पंचेन्द्रिय-तिर्यग्योनिक-जीवों से उत्पन्न नहीं होते। तीसवां आलापक : पृथ्वीकायिक में संख्यात वर्ष की आयु वाले संज्ञी- तिर्यंच-पंचेन्द्रिय
-जीवों का उपपात-आदि १९६. यदि संख्यात वर्ष की आयु वाले संज्ञी-पञ्चेन्द्रिय-तिर्यगयोनिक-जीवों से उत्पन्न होते हैं तो क्या जलचर-जीवों से उत्पन्न होते हैं.....? शेष असंज्ञी-जीवों की भांति वक्तव्य है यावत्-(भ. २४/१९२,१९३) (पहला गमक : औधिक और औधिक) १९७. भन्ते! वे जीव एक समय में कितने उत्पन्न होते हैं? इस प्रकार जैसे रत्नप्रभा में उपपद्यमान संज्ञी की वक्तव्यता उसी प्रकार यहां वक्तव्य है, इतना विशेष है-(भ. २४/ ५८-६२) अवगाहना-जघन्यतः अंगुल-का-असंख्यातवां-भाग, उत्कृष्टतः एक हजार योजन। शेष पूर्ववत् यावत् काल की अपेक्षा जघन्यतः दो अन्तर्मुहूर्त, उत्कृष्टतः अट्ठासी-हजार-वर्ष-अधिक-चार-कोटि-पूर्व-इतने काल तक रहता है, इतने काल तक गति-आगति
करता है। (पहले से नवें गमक तक)
इसी प्रकार कायसंवेध नौ ही गमकों असंज्ञी-जीवों की भांति अविकल रूप से वक्तव्य है। प्रथम तीन गमकों (पहले, दूसरे और तीसरे) में लब्धि रत्नप्रभा में उपपद्यमान संज्ञी-पंचेन्द्रिय-तिर्यग्योनिकों की भांति वक्तव्य है। मध्यम तीनों गमकों (चौथे, पांचवें और छठे) में पूर्ववत्। केवल इतना विशेष है-ये नौ नानात्व हैं-अवगाहना-जघन्यतः अंगुल-का-असंख्यातवां-भाग, उत्कृष्टतः अंगुल-का-असंख्यातवां-भाग। लेश्याएं तीन। मिथ्या-दृष्टि होते हैं। दो अज्ञान होते हैं। काय-योगी होते हैं। समुद्घात तीन। स्थिति-जघन्यतः अन्तर्मुहर्त्त, उत्कृष्टतः भी अन्तर्मुहूर्त। अध्यवसान अप्रशस्त होते हैं। अनुबन्ध-स्थिति की भांति वक्तव्य है। शेष पूर्ववत्। अन्तिम तीन गमकों (सातवें, आठवें और नवें) में प्रथम गमक के समान वक्तव्यता। केवल इतना विशेष है-स्थिति और अनुबन्ध जघन्यतः एक
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