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भगवती सूत्र
श. २३ : व. ३-५ : उ. १-१० : सू. ४-९
जो जीव मूल रूप में उपपन्न होते हैं, भंते! वे जीव कहां से (आकर ) उत्पन्न होते हैं ? इस प्रकार इन जीवों के संदर्भ में भी मूल आदि दस उद्देशक (भ. २३/१ में कहे गए) आलुक-वर्ग की भांति अविकल रूप में कहने चाहिए - केवल इतना अन्तर है, अवगाहना – (भ. २२ / १ में कहे गए) ताल वर्ग की भांति वक्तव्य है, शेष उसी प्रकार । ५. भंते! वह ऐसा ही है। भंते! वह ऐसा ही है ।
चौथा वर्ग
६. भंते! पाठा, बड़ी इन्द्रायण, मुलहठी, करेली, पद्मा (स्थल कमल), अतिविसा, दंती (लघुदंती), लिंगनी ( शिवलिंगी) – इनके जो जीव मूल रूप में उपपन्न होते हैं, भंते! वे जीव कहां से (आकर) उत्पन्न होते हैं ? इस प्रकार इन जीवों के संदर्भ में भी मूल आदि दस उद्देशक (भ. २३/१ में कहे गए) आलुक-वर्ग की भांति अविकल रूप में कहने चाहिए- केवल इतना अंतर है, अवगाहना – (भ. २२ / ६ में कहे गए) वल्ली-वर्ग की भांति वक्तव्य है, शेष उसी प्रकार । ७. भंते! वह ऐसा ही है। भंते!
वह ऐसा ही है ।
पांचवां वर्ग
८. भंते! जंगली उडद, वनमूंग, जीवक, सरसों, छोटी अमलतास, काकोली, क्षीरकाकाली, भांग, नाही कंद, माजूफल, भद्रमुस्ता (मोथा ), लाङ्गलकी (कलिकारी), वच, कृष्णा (कृष्ण तुलसी), बिदारी आदि, जलकुंभी, रेणुका (संभालू का बीज), रोहीतक (रोहेडा ) - इनके जो जीव मूल रूप में उपपन्न होते हैं, भंते! वे जीव कहां से (आकर ) उत्पन्न होते हैं? इस प्रकार इन जीवों के संदर्भ में भी मूल आदि दस उद्देशक (भ. २३/ १ में कहे गए) आलुक-वर्ग की भांति अविकल रूप में कहने चाहिए । इस प्रकार इन पांच वर्गों के पचास उद्देशक कहने चाहिए। इन सबमें देव उत्पन्न नहीं होते हैं। तीन लेश्याएं होती हैं।
९. भंते! वह ऐसा ही है। भंते! वह ऐसा ही है ।
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