________________
श. २१ : व. २-६ : उ. १-१० : सू. १५-१९
भगवती सूत्र
इस प्रकार इन जीवों के संदर्भ में भी मूल आदि दस उद्देशक वैसे ही निरवशेष वक्तव्य हैं जैसे (भ. २१/१-१४ में) शालि-वर्ग के संदर्भ में कहे गए हैं।
तीसरा वर्ग १६. भंते! अलसो, कुसुम्भ, कोदव, कंगु, चीना धान्य, दाल, 'कोदूसा' (कोदव की एक जाति), सन, सरसों, मूलकबीज-इनके जो जीव मूल-रूप में उपपन्न होते हैं, भंते! वे जीव कहां से (आकर) उपपन्न होते हैं? इस प्रकार इन जीवों के संदर्भ में भी मूल आदि दश उद्देशक की वक्तव्यता, वैसे ही निरवशेष वक्तव्य हैं जैसे (भ. २१/१-१४ में) शालि-वर्ग के संदर्भ में कहे गए हैं।
चौथा वर्ग १७. भंते! वंश (बांस), वेणु (बांस), कनक (धतूरा), कर्कावंश, चारुवंश, उडा (दण्डा),
कुटी, विमल (पद्मकाष्ठ), कण्डा (सरकंडा), वेणुका (वेणुयव), कल्याण (गरजन)-इनके जो जीव मूल-रूप में उपपन्न होते हैं, भंते! वे जीव कहां से (आकर) उपपन्न होते हैं? इस प्रकार इन जीवों के संदर्भ में भी मूल आदि दस उद्देशक वैसे ही वक्तव्य हैं जैसे (भ. २१/१-१४ में) शालि-वर्ग के संदर्भ में कहे गए हैं, केवल इतना अन्तर है-देव सर्वत्र उत्पन्न नहीं होते। तीन लेश्याएं होती हैं। सर्वत्र छब्बीस भंग होते हैं, शेष उसी प्रकार।
पांचवां वर्ग १८. भंते! इक्षु (गन्ना), इक्षुवाटिका (पुण्ड्र नामक ईख का भेद), वीरण (गाडर घास),
इक्कट (इकडी), भमास (धमासा), श्रुव (चूरनहार), शर (रामसर), वेत्र (बेंत), तिमिर (जल महुआ), शतपोरक ईख, नल (नरकट)-इनके जो जीव मूल-रूप में उपपन्न होते हैं, भंते! वे जीव कहां से (आकर) उपपन्न होते हैं? इस प्रकार इन जीवों के संदर्भ में भी मूल आदि दस उद्देशक वैसे ही वक्तव्य है, जैसे (भ. २१/१७) में) वंश-वर्ग के संदर्भ में कहे गए हैं, केवल इतना अन्तर हैं-स्कन्ध-उद्देशक में देव उत्पन्न हाते हैं। लेश्याएं चार हैं। शेष उसी प्रकार।
छठा वर्ग १९. भंते! सेडिय (ज), भक्तिका (आरामशीतला), होत्रीय (सितदर्भ), दर्भ (डाभ, श्वेत
दर्भ), कुश (कुस घास), पर्वत (पहाड़ी तृण), पोटगल (नल-तृण), अर्जुन (तृण), आषाढा (दुर्वा-हरी दूब), रौहिषक (दीर्घ रौहिष या रूसाघास), शुक (बालतृण अथवा पटुतृण), तवक्षीर (तीरवुर), भुस (भुसा), एरण्ड, कुरूकुंद (कुरुविंद, मोथा), करकर (करकरा या करीर), सूंठ, विभंगु, मधुर तृण (मज्जर तृण), स्थूल इक्षुर (अथवा स्थूलशर), शिल्पिका तृण-शूकडितृण-इनके जो जीव मूल-रूप में उपपन्न होते हैं, भंते! वे जीव कहां से (आकर) उपपन्न होते हैं? इस प्रकार इन जीवों के संदर्भ में भी मूल आदि दस उद्देशक वैसे ही निरवशेष वक्तव्य हैं, जैसे (भ. २१/१७ में) वंश-वर्ग के संदर्भ में कहे गए हैं।
७०२