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भगवती सूत्र
श. १८ : उ. ३ : सू. ७४-८१ माकंदिक-पुत्र! दो प्रकार का प्रज्ञप्त है जैसे–सादिक-विससा-बंध, अनादिक-विस्रसा-बंध । ७५. भंते! प्रयोग-बंध कितना प्रकार का प्रज्ञप्त है?
माकंदिक-पुत्र! दो प्रकार का प्रज्ञप्त है, जैसे-शिथिल-बंधन-बद्ध, गाढ़-बंधन-बद्ध। ७६. भंते! भाव-बंध कितने प्रकार का प्रज्ञप्त है?
माकंदिक-पुत्र! दो प्रकार का प्रज्ञप्त है, जैसे-मूल-प्रकृति-बंध, उत्तर-प्रकृति-बंध । ७७. भंते! नैरयिकों के कितने प्रकार का भाव-बंध प्रज्ञप्त है? माकंदिक-पुत्र! दो प्रकार का भाव-बंध प्रज्ञप्त है, जैसे-मूल-प्रकृति-बंध, उत्तर-प्रकृति-बंध। इस प्रकार यावत् वैमानिकों की वक्तव्यता। ७८. भंते! ज्ञानावरणीय-कर्म का कितने प्रकार का भाव-बंध प्रज्ञप्त हैं? माकंदिक-पुत्र! दो प्रकार का भाव-बंध प्रज्ञप्त है। जैसे-मूल-प्रकृति-बंध, उत्तर-प्रकृति-बंध। ७९. भंते! नैरयिकों के ज्ञानावरणीय-कर्म का कितने प्रकार का भाव-बंध प्रज्ञप्त है? माकंदिक-पुत्र! दो प्रकार का भाव-बंध प्रज्ञप्त है, जैसे-मूल-प्रकृति-बंध, उत्तर-प्रकृति-बंध। इस प्रकार यावत् वैमानिकों की वक्तव्यता। जैसे-ज्ञानावरणीय के दंडक बतलाए गए हैं, इसी प्रकार यावत् आंतरायिक-कर्म के दंडक वक्तव्य हैं। कर्म-नानात्व-पद ८०. भंते! जीवों के द्वारा जो पाप-कर्म कृत है, जो किया जा रहा है, जो किया जाएगा, क्या उसमें कुछ नानात्व है?
हां, है। ८१. भंते! यह किस अपेक्षा से कहा जा रहा है-जीवों के द्वारा जो पाप-कर्म कृत है, जो किया जा रहा है, जो किया जाएगा, उसमें कुछ नानात्व है? माकंदिक-पुत्र! जैसे कोई पुरुष धनुष हाथ में लेता है, लेकर बाण को धनुष पर चढ़ाता है। चढ़ाकर स्थान (वैशाख नाम की मुंह की मुद्रा) में खड़ा होता है, खड़ा होकर बाण को कान की लंबाई तक खींचता है, खींचकर ऊपर आकाश की ओर उसे फेंकता है, माकंदिक-पुत्र! ऊर्ध्व आकाश में तीर को फेंकते हुए उस पुरुष के एजन में भी नानात्व है, व्येजन में भी नानात्व है, चलन में भी नानात्व हैं, स्पन्दन में भी नानात्व है, घट्टन में भी नानात्व है, क्षोभ में भी नानात्व है, उदीरणा में भी नानात्व है, उस-उस भाव के परिणमन में भी नानात्व है? हां भगवन् ! एजन में भी नानात्व है यावत् उस-उस भाव के परिणमन में भी नानात्व है। माकंदिक-पुत्र! इस अपेक्षा से यह कहा जा रहा है-एजन में भी नानात्व है, यावत् उस-उस भाव के परिणमन में भी नानात्व है।
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