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श. १७ : उ. ६-१० : सू. ७०-७८
भगवती सूत्र
रत्नप्रभा की वक्तव्यता, इसी प्रकार यावत् अधःसप्तमी में समवहत होकर ईषत्-प्राग्भारा में उपपात की वक्तव्यता। शेष पूर्ववत्। ७१. भंते! वह ऐसा ही है। भंते! वह ऐसा ही है।
सातवां उद्देशक ७२. भंते! पृथ्वीकायिक सौधर्म-कल्प पर समवहत होता है। समवहत होकर जो भव्य इसी रत्नप्रभा-पृथ्वी में पृथ्वीकायिक के रूप में उपपन्न होने वाला है। भंते! क्या वह पहले उपपन्न होगा, पश्चात् स्थान को संप्राप्त करेगा? शेष पूर्ववत्। जैसे रत्नप्रभा के पृथ्वीकायिक का सर्व कल्पों में यावत् ईषत्-प्राग्भारा में उपपात, इसी प्रकार सौधर्म-पृथ्वीकायिक का सातों पृथ्वियों में उपपात वक्तव्य है यावत् अधःसप्तमी में। इस प्रकार जैसे सौधर्म-पृथ्वीकायिक का सब पृथ्वियों में उपपात। इसी प्रकार यावत् ईषत्-प्राग्भारा-पृथ्वीकायिक से सर्व पृथ्वियों में उपपात यावत् अधःसप्तमी में। ७३. भंते! वह ऐसा ही है। भंते! वह ऐसा ही है।
आठवां उद्देशक ७४. भंते! इस रत्नप्रभा-पृथ्वी पर अप्कायिक समवहत होता है। समवहत होकर जो भव्य सौधर्म-कल्प में अप्कायिक के रूप में उपपन्न होने वाला है? इसी प्रकार पृथ्वीकायिक की भांति अप्कायिक का सर्व कल्पों में यावत् ईषत्-प्राग्भारा में उपपात होता है। इस प्रकार जैसे रत्नप्रभा के अप्कायिक का उपपात होता है वैसे ही ..
अधःसप्तमी के अप्कायिक का उपपात वक्तव्य है यावत् ईषत्-प्राग्भारा में। ७५. भंते! वह ऐसा ही है। भंते! वह ऐसा ही है।
नवम उद्देशक ७६. भंते! सौधर्म-कल्प में अप्कायिक समवहत होता है। समवहत होकर जो भव्य इस रत्नप्रभा-पृथ्वी के घनोदधि-वलय में अप्कायिक के रूप में उपपन्न होने वाला है, भंते! क्या वह पहले उपपन्न होता है, पश्चात् स्थान को संप्राप्त करता है? पूर्ववत्। इसी प्रकार यावत् अधःसप्तमी में। इसी प्रकार सौधर्म-अप्कायिक की भांति यावत् ईषत्-प्राग्भारा के अप्कायिक का यावत् अधःसप्तमी में उपपात वक्तव्य हैं। ७७. भंते! वह ऐसा ही है। भंते! वह ऐसा ही है।
दसवां उद्देशक ७८.भंते! इस रत्नप्रभा-पृथ्वी पर वायुकायिक जीव, यावत् जो भव्य सौधर्म-कल्प में वायुकायिक के रूप में उपपन्न होने वाला है। भंते! क्या वह पहले उपपन्न होता है। पश्चात् स्थान को संप्राप्त करता है। पृथ्वीकायिक की भांति वायुकायिक की वक्तव्यता। इतना विशेष है-वायुकायिक जीवों के
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