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भगवती सूत्र
श. १६ : उ. ३,४ : सू. ४८-५१
के बाहर उत्तर-पूर्व दिशि-भाग, वहां एकजम्बूक नाम का चैत्य था - वर्णक । श्रमण भगवान् महावीर किसी दिन क्रमानुसार विचरण, ग्रामानुग्राम परिव्रजन और सुखपूर्वक विहार करते हुए एकजंबूक चैत्य में समवसृत हुए यावत् परिषद् लौट गई।
४९. अयि भंते! भगवान् गौतम ने श्रमण भगवान् महावीर को वंदन - नमस्कार किया, वंदन-नमस्कार कर इस प्रकार कहा - भंते! निरंतर बेले- बेले तपःकर्म के द्वारा आतापन - भूमि में दोनों भुजाएं ऊपर उठाकर सूर्य के सामने आतापना लेते हुए भावितात्मा अनगार के लिए दिन के पूर्वार्द्ध में हाथ, पैर, भुजा और साथल का संकोचन अथवा फैलाव कल्प की सीमा में नहीं है - विहित नहीं है। दिन के उत्तरार्ध में हाथ, पैर, भुजा और साथल का संकुचन अथवा फैलाव विहित । उस भावितात्मा अनगार के अर्श-मस्सा लटक रहा है। वैद्य ने उसे देखा, पैर सिकोड़ कर घुटनों को ऊंचा कर भूमि पर लिटाया, लिटा कर अर्श- मस्से का छेदन किया। भंते! जो छेदन करता है, उसके क्रिया होती है ? जिसका छेदन करता है, उसके एक धर्मान्तराय के सिवाय अतिरिक्त क्रिया नहीं होती ?
हां, गौतम ! जो छेदन करता है, उसके क्रिया होती है। जिसका छेदन करता है, उसके एक धर्मान्तराय के सिवाय क्रिया नहीं होती ।
५०. भंते! वह ऐसा ही है। भंते! वह ऐसा ही है ।
चौथा उद्देश
नैरयिक का निर्जरा पद
५१. राजगृह नगर यावत् गौतम ने इस प्रकार कहा - भंते! रूक्षभोजी श्रमण-निर्ग्रथ जितने कर्मों की निर्जरा करता है-क्या नरकों में नैरयिक एक वर्ष, अनेक वर्ष अथवा सौ वर्षों में इतने कर्मों का क्षय करते हैं ?
यह अर्थ संगत नहीं है ।
भंते! चतुर्थ-भक्त (उपवास) करने वाला श्रमण-निर्ग्रन्थ जितने कर्मों की निर्जरा करता है— क्या नरक में नैरयिक इतने कर्मों का सौ वर्ष, सैकड़ों वर्ष अथवा हजार वर्ष में क्षय करते हैं ?
यह अर्थ संगत नहीं है ।
भंते! षष्ठ-भक्त (दो दिन का उपवास) करने वाला श्रमण-निर्ग्रन्थ जितने कर्मों की निर्जरा करता है- क्या नरक में नैरयिक इतने कर्मों का हजार वर्ष में, हजारों वर्ष में अथवा लाख वर्ष में क्षय करते हैं ?
यह अर्थ संगत नहीं है ।
भंते! अष्टम-भक्त (तीन दिन का उपवास) करने वाला श्रमण-निर्ग्रन्थ जितने कर्मों की निर्जरा करता है - क्या नरक में नैरयिक इतने कर्मों का लाख वर्ष, लाखों वर्ष अथवा करोड़ वर्ष में क्षय करते हैं?
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