________________
भगवती सूत्र
श. १५ : सू. ९१-९६
वणिकों ने हृष्ट-तुष्ट होकर भाजनों को भरा, वाहनों को भरा, भर कर चौथी बार भी एक दूसरे से इस प्रकार कहा - देवानुप्रियो ! हमने इस वल्मीक के पहले शिखर का भेदन कर प्रधान जल - रत्न को प्राप्त किया। दूसरे शिखर का भेदन कर प्रधान स्वर्ण-रत्न को प्राप्त किया, तीसरे शिखर का भेदन कर प्रधान मणि रत्न को प्राप्त किया । इसलिए देवानुप्रियो ! हमारे लिए श्रेय है कि हम इस वल्मीक के चौथे शिखर का भी भेदन करें, उत्तम महान् मूल्य वाला, महान् अर्हता वाला और प्रधान वज्र - रत्न प्राप्त होगा ।
९२. उन वणिकों में एक वणिक हित की कामना करने वाला, शुभ की कामना करने वाला, पथ्य की कामना करने वाला अनुकंपा करने वाला, निःश्रेयस करने वाला, हित, शुभ, और निःश्रेयस की कामना करने वाला था । उस वणिक ने इस प्रकार कहा- देवानुप्रियो ! हमने इस वल्मीक के पहले शिखर का भेदन कर प्रधान जल-रत्न प्राप्त किया, दूसरे शिखर का भेदन कर प्रधान स्वर्ण-रत्न प्राप्त किया, तीसरे शिखर का भेदन कर प्रधान मणि-रत्न प्राप्त किया, बस हमारे लिए पर्याप्त है, इस चौथे शिखर का भेदन मत करो। चौथा शिखर उपसर्ग - सहित है ।
९३. हित की कामना करने वाले, शुभ की कामना करने वाले, पथ्य की कामना करने वाले, अनुकंपा करने वाले, निःश्रेयस करने वाले, हित, शुभ और निःश्रेयस की कामना करने वाले उस वणिक के इस प्रकार आख्यान करने पर यावत् प्ररूपण करने पर उन वणिकों ने इस अर्थ पर श्रद्धा नहीं की, प्रतीति नहीं की, रुचि नहीं की। इस अर्थ पर अश्रद्धा करते हुए, अप्रतीति करते हुए, अरुचि करते हुए, उस वल्मीक के चौथे शिखर का भेदन किया। वहां उग्र विष, प्रचण्ड विष, घोर विष और महाविष वाले, स्थूल काय, महाकाय, स्याही और मूषा के समान काले, चपल एवं चलती हुई द्विजिह्वा वाले, पृथ्वी तल पर वेणी के सदृश, उत्कट, स्फुट, कुटिल, जटिल, कर्कश एवं विकट फटाटोप करने में दक्ष, लुहार की धौंकनी के सदृश धमधम (सूं सूं) घोष करने वाले, अनाकलित प्रचण्ड तीव्र रोष वाले, श्वान की भांति मुंह वाले त्वरित, चपल, दृष्टिविष सर्प का स्पर्श हुआ ।
९४. वह दृष्टिविष सर्प उन वणिकों का स्पर्श होते ही तत्काल आवेश में आ गया। वह रुष्ट हो गया, कुपित हो गया, उसका रूप रौद्र, क्रोध की अग्नि में प्रदीप्त होकर वह धीरे-धीरे उठा, उठ कर सर सर करता हुआ वल्मीक के शिखर तल पर चढा चढकर सूर्य को एकटक देखा, देख कर अनिमेष दृष्टि से चारों ओर उन वणिकों को देखा।
९५. उस दृष्टिविष सर्प द्वारा अनिमेष दृष्टि से चारों ओर देखे जाने पर वे वणिक शीघ्र ही अपने भांड - अमत्र - उपकरण सहित एक ही प्रहार में कूटाघात की भांति राख के ढेर जैसे हो गए। उन वणिकों की हित की कामना करने वाले, शुभ की कामना करने वाले, पथ्य की कामना करने वाले, अनुकंपा करने वाले, निःश्रेयस करने वाले, हित, शुभ और निःश्रेयस की कामना करने वाले उस वणिक को अनुकंपा करने वाले देव ने अपने भांड - अमत्र - उपकरण सहित अपने नगर में पहुंचा दिया।
९६. आनन्द ! इसी प्रकार तुम्हारे धर्माचार्य धर्मोपदेशक ज्ञातपुत्र श्रमण ने प्रधान पर्याय प्राप्त किया, प्रधान कीर्ति, वर्ण, शब्द, श्लोक प्रसारित हो रहे हैं, गूंज रहे हैं, स्तुति का विषय बने
५६२