________________
भगवती सूत्र
श. १५ : सू. ७०-७५
आतपन - भूमि में सूर्य के सामने दोनों भुजाएं ऊपर उठाकर आतापना लेता है, वह छह मास
|
के अंतराल में संक्षिप्त विपुल तेजोलेश्या वाला हो जाता है ।
७१. मंखलिपुत्र गोशाल ने मेरे इस अर्थ को विनयपूर्वक स्वीकार किया।
तिल के पौधे की निष्पत्ति : गोशाल का अपक्रमण-पद
७२. गौतम ! मैं एक दिन मंखलिपुत्र गोशाल के साथ कूर्म-ग्राम नगर से सिद्धार्थ - ग्राम नगर की ओर विहार के लिए प्रस्थित हुआ। हम उस भू-भाग के निकट आये, जहां वह तिल का पौधा था। मंखलिपुत्र गोशाल ने मुझे इस प्रकार कहा - भंते! आपने तब मुझे ऐसा कहा था यावत् प्ररूपणा की थी - गोशाल ! यह तिल का पौधा निष्पन्न होगा; निष्पन्न नहीं होगा, ऐसा नहीं है। ये सात तिल फूलों के जीव मर कर इसी तिल के पौधे की एक तिलफली में सात तिल के रूप में उपपन्न होंगे, वह मिथ्या है। यह प्रत्यक्ष दिखाई देता है - वह तिल का पौधा निष्पन्न नहीं हुआ, अनिष्पन्न ही है । वे सात तिल फूलों के जीव मरकर इस तिल के पौधे की एक तिलफली में सात तिल के रूप में उपपन्न नहीं हुए हैं।
७३. गौतम ! मैंने मंखलिपुत्र गोशाल से इस प्रकार कहा - गोशाल ! उस समय तुमने मेरे आख्यान एवं प्ररूपण करने पर इस अर्थ पर श्रद्धा नहीं की, प्रतीति नहीं की, रुचि नहीं की । इस अर्थ पर अश्रद्धा करते हुए, अप्रतीति करते हुए, अरुचि करते हुए मुझे संकल्पित कर 'यह मिथ्यावादी हो' - ऐसा सोच कर तुम मेरे पास से शनैः-शनैः पीछे सरक गए, सरक कर जहां तिल का पौधा था, वहां गए, जाकर तिल के पौधे को जड़ की मिट्टी सहित उखाड़ा, उखाड़ कर एकांत में फैंक दिया। गोशाल ! उसी समय आकाश में दिव्य बादल घुमड़ने लगा। वह दिव्य बादल शीघ्र ही जोर-जोर से गरजने लगा, शीघ्र ही बिजली चमकने लगी। शीघ्र ही वर्षा शुरू हो गई। न अधिक पानी बहा, न अधिक कीचड़ हुआ । रजों और धूलिकणों को जमाने वाली दिव्य बूंदाबांदी हुई। उससे तिल के पौधे का रोपण हुआ। वह अंकुरित हुआ, बद्धमूल हुआ और वहीं पर प्रतिष्ठित हो गया। वे सात तिल फूलों के जीव मर कर उसी तिल के पौधे की एक तिलफली में सात तिलों के रूप में उपपन्न हुए । इसलिए गोशाल ! यह तिल का पौधा निष्पन्न हुआ है, अनिष्पन्न नहीं हुआ। ये सात तिल फूलों के जीव मर कर इस तिल के पौधे की एक तिलफली में सात तिलों के रूप में उपपन्न हुए हैं। गोशाल ! इस प्रकार वनस्पतिकायिक जीवों का 'पउट्ट- परिहार' (पोट्ट- परिहार ) होता है - वनस्पतिकायिक जीव मरकर पुनः उसी शरीर में उपपन्न हो जाते हैं ।
७४. मंखलिपुत्र गोशाल ने मेरे इस प्रकार आख्यान यावत् प्ररूपण करने पर इस अर्थ पर श्रद्धा नहीं की, प्रतीति नहीं की, रुचि नहीं की, इस अर्थ पर अश्रद्धा, अप्रतीति और अरुचि करता हुआ जहां तिल का पौधा था, वहां आया, आकर उस तिल के पौधे से तिल की फली को तोड़ा, तोड़ कर हाथ में सात तिलों का प्रस्फोटन किया ।
७५. उन सात तिलों की गणना करते हुए मंखलिपुत्र गोशाल के मन में इस प्रकार का आध्यात्मिक, स्मृत्यात्मक, अभिलाषात्मक, मनोगत संकल्प उत्पन्न हुआ - इसी प्रकार सब जीवों के पोट्ट- परिहार होता है - गौतम ! यह मंखलिपुत्र गोशाल का 'पउट्ट' का सिद्धान्त है। गौतम ! यह मंखलिपुत्र गोशाल का मेरे पास से स्वयं अपक्रमण हो गया ।
५५८