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श. १५ : सू. ३२-३८
भगवती सूत्र -आठ कदम मेरे सामने आया, आकर मुझे दायीं ओर से प्रारम्भ कर तीन बार प्रदक्षिणा की, प्रदक्षिणा कर मुझे वंदन-नमस्कार किया। वंदन-नमस्कार कर-मैं महावीर को विपुल खाद्यविधि से प्रतिलाभित करूंगा, यह सोच कर तुष्ट हुआ, प्रतिलाभित करता हुआ भी तुष्ट हुआ, प्रतिलाभित करके भी तुष्ट हुआ। ३३. उस गृहपति आनन्द ने द्रव्यशुद्ध, दाताशुद्ध, प्रतिग्राहक शुद्ध, त्रिविध, त्रिकरण से शुद्ध दान
के द्वारा मुझे प्रतिलाभित कर देव-आयुष्य का निबंध किया, संसार को परीत किया, उस समय उसके घर में ये पांच दिव्य प्रकट हुए, जैसे-रत्नों की धारा निपात वृष्टि, पांच वर्ण वाले फूलों की वृष्टि, ध्वजा फहराने लगी, देवदुन्दुभियां बजी, आकाश के अन्तराल में 'अहो! दानम् अहो! दानम्' की उद्घोषणा हुई। ३४. राजगृह नगर के शृंगाटकों, तिराहों, चौराहों, चौहटों, चार द्वार वाले स्थानों, राजमार्गों और मार्गों पर बहुजन परस्पर इस प्रकार आख्यान, भाषण, प्रज्ञापना एवं प्ररूपणा करते हैं-देवानुप्रिय! गृहपति आनंद धन्य है। देवानुप्रिय! गृहपति आनन्द कृतार्थ है। देवानुप्रिय ! गृहपति आनन्द कृतपुण्य है। देवानुप्रिय! गृहपति आनन्द कृतलक्षण है। देवानुप्रिय! गृहपति आनंद ने इहलोक और परलोक दोनों को सुधार लिया, देवानुप्रिय! गृहपति आनंद ने मनुष्य जन्म और जीवन का अच्छी तरह से फल प्राप्त किया है, जिस गृहपति आनन्द के घर में तथारूप साधु ने साधुरूप में प्रतिलाभित होने पर ये पांच दिव्य प्रकट हुए, जैसे-रत्नों की धारा निपात-वृष्टि यावत् 'अहो! दानम् अहो! दानम्' की उद्घोषणा, इसलिए वह धन्य, कृतार्थ, कृतपुण्य, कृतलक्षण है, उसने इहलोक और परलोक दोनों को सुधारा है। गृहपति आनन्द ने, गृहपति आनन्द ने मनुष्य जन्म और जीवन का अच्छा फल प्राप्त किया है। ३५. बहुजन के पास इस अर्थ को सुनकर, अवधारण कर मंखलिपुत्र गोशाल के मन में संशय
और कुतूहल उत्पन्न हुआ। जहां गृहपति आनन्द का घर था, वहां आया, आकर गृहपति आनन्द के घर रत्नों की धारा निपात वृष्टि तथा पांच वर्णवाले फूलों की वृष्टि को देखा। गृहपति आनन्द के घर से प्रतिनिष्क्रमण करते हुए मुझे देखा, देखकर हृष्ट-तुष्ट हुआ, जहां मैं था, वहां आया, आकर मुझे दायीं ओर से प्रारम्भ कर तीन बार प्रदक्षिणा कर वंदन-नमस्कार किया, वंदन-नमस्कार कर मुझे इस प्रकार बोला-भंते! आप मेरे धर्माचार्य हैं, मैं आपका धर्मान्तेवासी हूं। ३६. गौतम! मंखलिपुत्र गोशाल के इस अर्थ को मैंने आदर नहीं दिया, स्वीकार नहीं किया, मैं
मौन रहा। तीसरा मासखमण-पद ३७. गौतम! मैंने राजगृह नगर से प्रतिनिष्क्रमण किया, प्रतिनिष्क्रमण कर बाहिरिका नालंदा के बीचोंबीच निर्गमन किया, निर्गमन कर जहां तंतुवायशाला थी, वहां आया, आकर तीसरा मासखमण स्वीकार कर विहार करने लगा। ३८. गौतम! मैंने तीसरे मासखमण के पारण में तंतुवायशाला से प्रतिनिष्क्रमण किया, प्रतिनिष्क्रमण कर बाहिरिका नालंदा के बीचोंबीच निर्गमन किया, निर्गमन कर जहां राजगृह
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