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भगवती सूत्र
श. १५ : सू. २०-२६
भगवान का विहार- पद
२०. गौतम ! उस काल और उस समय में मैं तीस वर्ष घर में रह कर माता-पिता के दिवंगत होने पर मेरी प्रतिज्ञा सम्पन्न हो गई, इस प्रकार भावना अध्ययन की वक्तव्यता (आयारचूला, १५ / २६ - २९) यावत् एक देवदूष्य को लेकर मुंड होकर अगारता से अनगरता में प्रव्रजित हो गया ।
२१. गौतम ! मैंने प्रथम वर्ष में अर्द्धमास - अर्द्धमास तप करते हुए अस्थिग्राम की निश्रा में प्रथम अंतरवास में वर्षावास किया। दूसरे वर्ष में मास मास का तप करते हुए क्रमशः विचरण तथा ग्रामानुग्राम परिव्रजन करते हुए जहां राजगृह नगर था, जहां बाहिरिका नालन्दा थी, जहां तंतुवायशाला थी, वहां आया, आकर प्रवास योग्य स्थान की अनुमति ली, अनुमति लेकर तंतुवायशाला के एक भाग में वर्षावास किया ।
पहला मासखमण-पद
२२. गौतम ! मैं प्रथम मासखमण तप को स्वीकार कर विहार करने लगा ।
२३. वह मंखलिपुत्र गोशाल चित्रफलक को हाथ में लेकर मंखत्व वृत्ति से अपना जीवन यापन करता हुआ, क्रमानुसार विचरण तथा ग्रामानुग्राम परिवज्रन करता हुआ, जहां राजगृह नगर, जहां बाहिरिका नालंदा, जहां तंतुवायशाला थी, वहां आया, आकर तंतुवायशाला के एक देश में भांड का निक्षेप किया, निक्षेप कर राजगृह नगर के उच्च, नीच तथा मध्यम कुलों सामुदानिक भिक्षा के लिए घूमते हुए चारों ओर आवास योग्य स्थान की गवेषणा की, चारों ओर मार्गणा - गवेषणा करते हुए कहीं भी आवास योग्य स्थान के प्राप्त न होने पर उसी तंतुवायशाला के एक भाग में वर्षावास किया, गौतम! जहां था ।
२४. गौतम ! मैंने प्रथम मासखमण के पारणे में तंतुवायशाला से प्रतिनिष्क्रमण किया, प्रतिनिष्क्रमण कर बाहिरिका नालंदा के बीचोंबीच निर्गमन किया, निर्गमन कर जहां राजगृह नगर था, वहां आया, वहां आकर राजगृह नगर के उच्च नीच और मध्यम कुलों में सामुदानिक भिक्षा के लिए घूमते हुए मैंने गृहपति विजय के घर में अनुप्रवेश किया।
२५. गृहपति विजय ने मुझे आते हुए देखा, देखकर हृष्ट-तुष्ट चित्त वाला, आनंदित, नंदित, प्रतिपूर्णमन वाला, परम सौमनस्य युक्त और हर्ष से विकस्वर हृदय वाला हो गया। शीघ्र ही आसन से उठा, उठकर पाद- पीठ से नीचे उतरा। नीचे उतर कर पादुका को खोला, खोलकर एक पट वाले वस्त्र का उत्तरासंग किया। उत्तरासंग कर दोनों हाथ जोड़े हुए सात-आठ कदम मेरे सामने आया, सामने आकर मुझे दायीं ओर से प्रारम्भ कर तीन बार प्रदक्षिणा की, प्रदक्षिणा कर मुझे वंदन - नमस्कार किया, वन्दन - नमस्कार कर मैं महावीर को विपुल अशन, पान, खाद्य, स्वाद्य से प्रतिलाभित करूंगा यह सोचकर तुष्ट हुआ, प्रतिलाभित करता हुआ भी तुष्ट हुआ, प्रतिलाभित करके भी तुष्ट हुआ ।
२६. गृहपति विजय ने द्रव्य शुद्ध, दाता शुद्ध, प्रतिग्राहक शुद्ध - इस प्रकार त्रिविध, त्रिकरण से शुद्ध दान के द्वारा मुझे प्रतिलाभित कर देवायुष्य का निबंध किया, संसार को परीत किया । उस समय उसके घर में ये पांच दिव्य प्रकट हुए, जैसे-रत्नों की धारा निपातवृष्टि, पांच वर्ण
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