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श. १५ : सू. ८-१३
भगवती सूत्र ८. उस काल और उस समय में स्वामी समवसृत हुए यावत् परिषद् वापस नगर में चली गई। ९. उस काल और उस समय में श्रमण भगवान् महावीर के ज्येष्ठ अंतेवासी इन्द्रभूति नामक
अणगार गौतम सगोत्र सात हाथ की ऊंचाई वाले, समचतुरस्र-संस्थान से संस्थित, वज्रऋषभनाराच-संहनन-युक्त, कसौटी पर खचित स्वर्णरेखा तथा पद्मकेसर की भांति पीताभ गौर वर्ण वाले, उग्रतपस्वी, दीप्ततपस्वी, तप्ततपस्वी, महातपस्वी, महान, घोर, घोर गुणों से युक्त, घोर तपस्वी, घोर ब्रह्मचर्यवासी, लघिमा-ऋद्धि-सम्पन्न, विपुल तेजो-लेश्या को अन्तर्लीन रखने वाले, बिना विराम षष्ठ-भक्त तपःकर्म तथा संयम और तप से आत्मा को भावित करते हुए रह रहे हैं। १०. भगवान् गौतम षष्ठ-भक्त के पारणा में प्रथम प्रहर में स्वाध्याय करते हैं, द्वितीय प्रहर में
ध्यान करते हैं, तृतीय प्रहर में त्वरता-, चपलता- और संभ्रम- रहित होकर मुखवस्त्रिका का प्रतिलेखन करते हैं, प्रतिलेखन कर पात्र-वस्त्र का प्रतिलेखन करते हैं, प्रतिलेखन कर पात्रों का प्रमार्जन करते हैं, प्रमार्जन कर पात्रों को हाथ में लेते हैं, लेकर जहां श्रमण भगवान् महावीर हैं, वहां आते हैं, आकर श्रमण भगवान् महावीर को वंदन-नमस्कार करते हैं, वंदन-नमस्कार कर वे इस प्रकार बोले-भंते ! मैं आपकी अनुज्ञा पाकर षष्ठ-भक्त के पारणा में श्रावस्ती नगर के उच्च, नीच और मध्यम कुलों की सामुदायिक भिक्षाचर्या के लिए घूमना चाहता हूं।
देवानुप्रिय! जैसा तुम्हें सुख हो, प्रतिबंध मत करो। ११. भगवान् गौतम श्रमण भगवान् महावीर की अनुज्ञा प्राप्त कर श्रमण भगवान् महावीर के पास से कोष्ठक चैत्य से बाहर आते हैं, बाहर आकर त्वरता-, चपलता- और संभ्रम-रहित होकर युग-प्रमाण भूमि को देखने वाली दृष्टि से ईर्या का शोधन करते हुए, शोधन करते हुए जहां श्रावस्ती नगर है, वहां आते हैं, आकर श्रावस्ती नगर के उच्च, नीच और मध्यम कुलों
की सामुदानिक भिक्षाचर्या के लिए घूमते हैं। १२. भगवान् गौतम श्रावस्ती नगर के उच्च, नीच और मध्यम कुलों की सामुदानिक भिक्षाचर्या के लिए घूमते हुए अनेक व्यक्तियों से ये शब्द सुनते हैं, अनेक व्यक्ति परस्पर इस प्रकार का आख्यान, भाषण, प्रज्ञापन एवं प्ररूपण करते हैं-देवानुप्रिय! मंखलिपुत्र गोशाल जिन होकर जिन-प्रलापी यावत् जिन होकर अपने आपको जिन शब्द से प्रकाशित करता हुआ विहार कर रहा है। तो क्या यह ऐसा ही है? १३. अनेक व्यक्तियों के पास इस अर्थ को सुनकर अवधारण कर भगवान् गौतम के मन में
एक श्रद्धा यावत् कुतूहल उत्पन्न हुआ। वे यथापर्याप्त भिक्षा लेते हैं, लेकर श्रावस्ती नगर से बाहर आते हैं, त्वरा-, चपलता- और संभ्रम-रहित होकर युग-प्रमाण भूमि को देखने वाली दृष्टि से ईर्या का शोधन करते हुए, शोधन करते हुए जहां कोष्ठक चैत्य है, जहां श्रमण भगवान महावीर हैं, वहा आते हैं, आकर श्रमण भगवान महावीर के न अति दूर और न अति निकट रहकर गमनागमन का प्रतिक्रमण करते हैं, प्रतिक्रमण कर एषणा और अनैषणा की आलोचना करते हैं, आलोचना कर भक्त-पान दिखलाते हैं, दिखलाकर श्रमण भगवान् महावीर को वंदन-नमस्कार करते हैं, वंदन-नमस्कार कर इस प्रकार बोले-भंते ! मैं षष्ठ-भक्त के पारणे में आपकी अनुज्ञा पाकर श्रावस्ती नगर के उच्च, नीच और मध्यम कुलों में सामुदायिक भिक्षा के लिए घूमते हुए अनेक व्यक्तियों के ये शब्द सुनता हूं, अनेक व्यक्ति परस्पर इस
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