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श. १ : उ. २ : सू. ९७-१०१
भगवती सूत्र जो अप्रमत्त-संयत हैं, उनके एक माया-प्रत्यया क्रिया होती है। जो प्रमत्त-संयत हैं, उनके दो क्रियाएं होती हैं, जैसे-आरंभिकी और माया-प्रत्यया। जो संयता-संयत हैं, उनके प्रथम तीन क्रियाएं होती हैं, जैसे-आरंभिकी, पारिग्रहिकी और माया-प्रत्यया। असंयत जीवों के चार क्रियाएं होती हैं-आरंभिकी, पारिग्रहिकी, माया-प्रत्यया और अप्रत्याख्यान-क्रिया। मिथ्यादृष्टि जीवों के पांच क्रियाएं होती हैं आरम्भिकी, पारिग्रहिकी, माया-प्रत्यया, अप्रत्याख्यान-क्रिया और मिथ्या-दर्शन-प्रत्यया। सम्यग्-मिथ्या-दृष्टि जीवों के भी पांच क्रियाएं होती हैं। ९८. भन्ते! क्या सब मनुष्य समान आयु वाले हैं? क्या वे एक साथ उपपन्न हैं?
गौतम! यह अर्थ संगत नहीं है। ९९. भन्ते! यह किस अपेक्षा से कहा जा रहा है-सब मनुष्य समान आयु वाले नहीं हैं और एक साथ उपपन्न नहीं हैं? गौतम! मनुष्य चार प्रकार के प्रज्ञप्त हैं, जैसे-कुछ मनुष्य समान आयु वाले और एक साथ उपपन्न हैं, कुछ मनुष्य समान आयु वाले और भिन्न काल में उपपन्न हैं, कुछ मनुष्य विषम आयु वाले और समकाल में उपपन्न हैं, कुछ मनुष्य विषम आयु वाले और भिन्न काल में उपपन्न हैं। गौतम! इस अपेक्षा से यह कहा जा रहा है-सब मनुष्य समान आयु वाले और एक साथ उपपन्न नहीं हैं। १००. वानमंतर-, ज्योतिष्क- और वैमानिक-देव असुरकुमार-देवों की तरह वक्तव्य हैं। केवल वेदना में भिन्नता है-(व्यंतर-देवों का वेदनाप्रकरण असुरकुमार की भांति ज्ञातव्य है)-ज्योतिष्क- और वैमानिक-देवों में (असंज्ञी जीव उत्पन्न नहीं होते)। जो मायी-मिथ्या-दृष्टि उपपन्न हैं, वे अल्पतर वेदना वाले और अमायी-सम्यग्-दृष्टि उपपन्न हैं, वे महत्तर
वेदना वाले हैं। १०१. भन्ते! क्या सब सलेश्य नैरयिक (आदि चौबीस दण्डक) समान आहार, शरीर, उच्छ्वास-निःश्वास, कर्म, वर्ण, लेश्या, वेदना, क्रिया और उपपात वाले हैं?
औधिक (निर्विशेषण नैरयिक सू. १।६०-७३), सलेश्य (लेश्या-विशेषण-युक्त चौबीस दण्डक) और शुक्ल-लेश्या-युक्त (बीस, इक्कीस और चौबीसवें दण्डक वाले) इन तीनों की वक्तव्यता एक समान है। (तात्पर्य की भाषा में सलेश्य औधिक के समान हैं)।
कृष्ण-लेश्या और नील-लेश्या-युक्त नैरयिक आदि दण्डक की वक्तव्यता एक समान है, केवल वेदना में भिन्नता है-मायी-मिथ्यादृष्टि उपपन्नक (नैरयिक) महत्तर वेदना वाले, अमायी सम्यग्-दृष्टि उपपन्नक (नैरयिक) अल्पतर वेदना वाले होते हैं। क्रिया-सूत्र में मनुष्य के सराग और वीतराग, प्रमत्त और अप्रमत्त-ये भेद वक्तव्य नहीं हैं। कापोत-लेश्या-युक्त नैरयिक आदि के लिये भी यही (कृष्ण-लेश्या के समान) वक्तव्यता है।