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(LIII)
वे जिन नगरों एवं उद्यानों म गए उनके सम्बन्ध में और वे जिन लोगों से मिले उनके सम्बन्ध में तथा उनकी उपदेश देने की पद्धति के विषय में एकरूप विवेचन प्रस्तुत कर उक्त विवरण को रूढ-सा बना दिया है। फिर भी यहां जो महत्त्वपूर्ण बिन्दु है वह यह है कि महावीर जिन स्थानों में वस्तुतः रहे थे, जिन लोगों से वस्तुतः मिले थे, अमुक प्रश्नों के बारे में जिन विचारों को उन्होंने निरूपित किया था, जिन अन्य लोगों के अभिप्राय को उन्होंने समर्थन दिया था या असमर्थन दिया था, अपने समय के जिन व्यक्तियों, पदार्थों और घटनाओं के विषय में उन्होंने टिप्पणी की थी, उनके विषय में यहां बताया गया है; तथा संक्षेप में यह कि यहां महावीर अपने काल की स्थितियों और परिस्थितियों के परिप्रेक्ष्य में एक सक्रिय व्यक्ति के रूप में अधिक प्रतीत हो रहे हैं। दूसरे शब्दों में वियाहपण्णत्ती के केन्द्रीय शतकों में एक मात्र वे असली संवादात्मक आगम-पाठ उपलब्ध हैं (जिन्हें पण्णत्ती कहा जाता है) जिनका अनुसरण आगे चलकर प्रज्ञापना जैसे संवादात्मक आगमों में (जिन्हें गौण पण्णत्ती कहा जा सकता है) तथा वियाहपण्णत्ती में प्रक्षिप्त पाठों में किया गया है।'' (५) रचनाकार, रचनाकाल
"प्रस्तुत आगम द्वादशांगी का पांचवां अंग है। इसमें भगवान् महावीर की वाणी गणधर सुधर्मा के द्वारा संकलित है, इसलिए इसके रचनाकार गणधर सुधर्मा हैं। इसका प्रस्तुत संस्करण देवर्द्धिगणी की वाचना के समय का है। ई.पू. ५०० से ईस्वी सन् ५०० तक के सूत्र इसमें मिलते हैं। गौतम ने पूछा-भंते! पूर्वगत श्रुत कब तक चलेगा? भगवान् ने उत्तर दिया गौतम ! मेरे निर्वाण के एक हजार वर्ष तक पूर्वगत श्रुत चलेगा
'जंबुद्दीवे णं भंते! दीवे भारहे वासे इमीसे ओसप्पिणीए देवाणुप्पियाणं केवतियं कालं पुव्वगए अणुसज्जिस्सति?
गोयमा! जंबुद्दीवे णं दीवे भारहे वासे इमीसे ओसप्पिणीए ममं एगं वाससहस्सं पुव्वगए अणुसज्जिस्सति ।'
"यह सूत्र संकलनाकालीन रचना है। देवर्द्धिगणि क्षमाश्रमण ने पार्श्वनाथ की परम्परा के देवगुप्त से एक पूर्व अर्थ-सहित और दूसरे पूर्व का केवल मूल पाठ पढ़ा था। अंतिम पूर्वधारी सत्यमित्र माने जाते हैं। उनके स्वर्गवास के पश्चात् पूर्वश्रुत का सर्वथा विच्छेद हो गया। धर्मसागरगणि-लिखित तपागच्छ पट्टावलि में इसका उल्लेख मिलता है श्रीवीरात् वर्षसहस्रे १००० गते सत्यमित्रे पूर्वव्यवच्छेदः पूर्वविच्छेदः ।
"भगवान् महावीर के प्रवचन में कहीं भी भविष्यवाणी नहीं है। यह सामयिक स्थिति का आकलन करने वाला सूत्र देवर्द्धिगणी की वाचना के समय जोड़ा गया प्रतीत होता है। १. भगवई (भाष्य), खण्ड १, भूमिका, पृ. ३. आत्मप्रबोध, ३३/१। ३३-३४।
४. पट्टावली समुच्चय, भाग १, पृ. ५१ । _अंगसुत्ताणि, भाग २, भगवई, २०/७०।