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( LII)
आगम। इनकी विशेष जानकारी के लिए अनुयोगद्वार का निर्देश किया गया है। व्याख्याप्रज्ञप्ति की रचना के समय जैन-ज्ञान-मीमांसा में प्रमाण का विकास नहीं हुआ था। इन चार प्रमाणों का समावेश आर्यरक्षित ने अनुयोगद्वार में किया था। व्याख्याप्रज्ञप्ति में इनका संदर्भ बहुत भ्रम पैदा करता है। नंदी की श्रुत-अज्ञान की व्याख्या तथा अनुयोगद्वार का प्रमाण-चतुष्टय ये सब उत्तरकालीन विकास है।"
"आगम-संकलन के समय कुछ मानदण्ड निश्चित किए गए। उनके अनुसार नगर, राजा, चैत्य, तपस्वी, परिव्राजक आदि का एक जैसा वर्णन किया जाता है। इससे ऐतिहासिक समस्याएं उत्पन्न होती हैं।
"भगवती के मूल पाठ और संकलन-काल में परिवर्धित पाठ का निर्णय करना यद्यपि सरल कार्य नहीं है, फिर भी सूक्ष्म अध्यवसाय के साथ यह कार्य किया जाए तो असंभव भी नहीं।
___ "डॉ. शुबिंग आदि विदेशी विद्वानों ने रचना के आधार पर मूल पाठ और परिवर्धित पाठ का निर्धारण किया है। उनका एक अभिमत यह है कि बीस शतक प्राचीन हैं और अगले शतक परिवर्धित हैं। यह विषय भाषा, वाक्यरचना आदि की दृष्टि से सूक्ष्मता के साथ अन्वेषणीय है। अन्वेषण के पश्चात् ही उत्तरवर्ती शतकों में परिवर्धित भाग अधिक है, यह स्वीकार किया जा सकता है। चौबीसवां शतक भाषा और वाक्य-रचना की दृष्टि से पूर्ववर्ती शतकों से भिन्न प्रतीत होता है। इसमें प्रस्तुत आगम की सहज सरलता नहीं है, किन्तु प्रज्ञापना जैसी जटिलता है। पच्चीसवें शतक के बारे में यह नहीं कहा जा सकता। फिर भी उसमें कुछ परिवर्धित नहीं है, यह भी नहीं कहा जा सकता। प्रतिसेवनारे, आलोचना', सामाचारी', प्रायश्चित्त'-विषयकसूत्र छेदसूत्रों और उत्तराध्ययन से संकलित हैं।
__"डॉ. डेल्यू ने इस विषय का स्पर्श इन शब्दों में किया है -"वियाहपण्णत्ती में चर्चित विषयों की विविधता और अनेक स्थलों पर इस चर्चा में आने वाले विभिन्न व्यक्तियों तथा परिस्थितियों की विविधता यह सारा व्यवस्थित पद्धति से दिए जाने वाले विवरण जैसा नहीं है। इसी कारण से हमारे पास यहां एक ऐसा विवरण उपलब्ध है, जो कि महावीर के सिद्धान्त वस्तुतः कैसे थे, उस विषय में निरूपण करता है, न कि उन सिद्धान्तों का जिन्हें उत्तरकाल में व्यवस्थित रूप दिया गया। वस्तुतः तो ऐसा यही एक मात्र यथार्थतः महत्त्वपूर्ण आगमिक विवरण उपलब्ध है। हां, यह अवश्य है कि परम्परा ने बहुत प्रकार से महावीर की यात्रा तथा १. भगवई (भाष्य), खण्ड १, भूमिका, पृ. ४. वही, २५/५५५। ३२-३३।
५. वही, २५/५५६। २. अंगसुत्ताणि, भाग २, भगवई, २५/ ६. Jozef Deleu, Viahapannatti ५५१।
(Bhagavai), Preface, pp. 34,35. ३. वही, २५/५५२-५५४।