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श. ११ : उ. ९ : सू. ५९-६१
भगवती सूत्र पक्व, श्याम वर्ण की भांति अपने आपको बनाते हुए विहार कर रहे हैं।) उनमें जो दिशाप्रोक्षिक (दिशा का प्रक्षालन करने वाले) तापस हैं उनके पास मुंड होकर दिशाप्रोक्षिक तापस के रूप में प्रव्रजित होकर मैं इस प्रकार का अभिग्रह स्वीकार करूंगा मैं जीवन भर निरन्तर बेले-बेले (दो दिन के उपवास) द्वारा दिशाचक्रवाल-तप की साधना करूंगा। मैं आतापन-भूमि में दोनों भुजाएं ऊपर उठाकर सूर्य के सामने आतापना लेता हुआ विहार करूंगा। ऐसी संप्रेक्षा करता है। संप्रेक्षा कर दूसरे दिन उषाकाल में पौ फटने पर यावत् सहस्ररश्मि दिनकर सूर्य के उदित और तेज से देदीप्यमान होने पर बहुत सारे तवा, कडाह, कड़छी, ताम्र-पात्र आदि तापस-भंड बनवाकर, कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाया। बुलाकर इस प्रकार कहा–देवानुप्रिय! हस्तिनापुर नगर के भीतर और बाहर पानी का छिड़काव करो, झाड़बुहार जमीन की सफाई करो, गोबर की लिपाई करो यावत् प्रवर सुरभि वाले गंध-चूर्णों से सुगंधित गंधवर्ती तुल्य करो, कराओ। ऐसा कर और करवा कर इस आज्ञा को मुझे प्रत्यर्पित
करो। ६०. उस शिव राजा ने दूसरी बार कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाया, बुलाकर इस प्रकार
कहा-देवानुप्रिय! कुमार शिवभद्र के लिए शीघ्र ही महान् अर्थ वाला, महान् मूल्य वाला, महान् अर्हता वाला विपुल राज्याभिषेक उपस्थित करो। उन कौटुम्बिक पुरुषों ने वैसा ही
राज्याभिषेक उपस्थित किया। ६१. अनेक गणनायक, दण्डनायक, राजे, युवराज, कोटवाल, मडम्ब-पति, कुटुम्ब-पति, इभ्य,
सेठ, सेनापति, सार्थवाह, दूत, संधिपाल के साथ संपरिवृत होकर उस शिवराजा ने कुमार शिवभद्र को पूर्वाभिमुख कर, प्रवर सिंहासन पर बिठाया, बिठाकर एक सौ आठ स्वर्णकलशों यावत् एक सौ आठ भौमेय (मिट्टी के) कलशों के द्वारा संपूर्ण ऋद्धि यावत् दुन्दुभि के निर्घोष से नादित शब्द के द्वारा महान् राज्याभिषेक से अभिषिक्त किया। अभिषिक्त कर रोएंदार सुकुमार सुरभित गंध-वस्त्र से गात्र को पौंछा, पौंछ कर सरस गोशीर्ष चन्दन का गात्र पर अनुलेप किया, इस प्रकार जैसे जमालि के अलंकारों की वक्तव्यता उसी प्रकार यावत् कल्पवृक्ष की भांति अलंकत-विभषित कर दिया। दोनों हथेलियों से निष्पन्न संपट आकार वाली दसनखात्मक अंजलि को सिर के सम्मुख घुमाकर कुमार शिवभद्र की 'जय हो विजय हो' के द्वारा वर्धापित किया। वर्धापित कर उन इष्ट, कांत, प्रिय, मनोज्ञ, मनोहर, मनोभिराम, हृदय का स्पर्श करने वाली वाणी और जय-विजय-सूचक मंगल शब्दों के द्वारा अनवरत अभिनन्दन और अभिस्तवन करते हुए इस प्रकार बोले-हे नंद! समृद्धपुरुष! तुम्हारी जय हो, जय हो। हे भद्रपुरुष! तुम्हारी जय हो, जय हो। भद्र हो। अजित को जीतो, जित की पालना करो, जीते हुए लोगों के मध्य निवास करो । देवों में इन्द्र, असुरों में चमरेन्द्र, नागों में धरणेन्द्र, तारागण में चन्द्र और मनुष्यों में भरत की भांति अनेक वर्षों तक, सैकड़ों, हजारों लाखों वर्षों तक परमपवित्र, हृष्ट-तुष्ट होकर परम आयुष्य का पालन करो। इष्टजनों से संपरिवृत होकर हस्तिनापुर नगर के अन्य अनेक ग्राम, आकर, नगर, खेट, कर्बट, द्रोणमुख, मण्डब, पत्तन, आश्रम, निगम, संभाग और सन्निवेश का आधिपत्य, पौरपत्य, भर्तृत्व, महत्तरत्व,
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