________________
भगवती सूत्र
श. ११ : उ. ८,९ : सू. ५५-५९
आठवां उद्देशक ५५. भंते! एकपत्रक-नलिन क्या एक जीव वाला है? अनेक जीव वाला है?
इस प्रकार पूर्ववत् सम्पूर्ण रूप से वक्तव्य है यावत् अनन्त बार उपपन्न हुए हैं। ५६. भंते! वह ऐसा ही है। भंते! वह ऐसा ही है।
नौवां उद्देशक
शिवराजर्षि-पद ५७. उस काल और उस समय में हस्तिनापुर नाम का नगर था-वर्णक। उस हस्तिनापुर नगर के
बाहर उत्तर-पूर्व-दिशि-भाग में सहस्राम्रवन नाम का उद्यान था-सर्व ऋतु में पुष्प, फल से समृद्ध, रम्य, नन्दनवन के समान प्रकाशक, सुखद शीतल छाया वाला, मनोरम, स्वादिष्टफल-युक्त, कंटकरहित, द्रष्टा के चित्त को प्रसन्न करने वाला, दर्शनीय, कमनीय और रमणीय। ५८. उस हस्तिनापुर नगर में शिव नाम का राजा था वह महान हिमालय, महान मलय, मेरु
और महेन्द्र की भांति-वर्णक। उस शिवराजा के धारिणी नाम की देवी थी-सुकुमाल हाथ पैर वाली-वर्णक। उस शिवराजा का पुत्र और धारिणी का आत्मज शिवभद्र नाम का कुमार थासुकुमार हाथ पैर वाला, सूर्यकांत (रायपसेणइयं, ६७३-६७४) की भांति वक्तव्यता यावत् राज्य, राष्ट्र, बल, वाहन, कोश, कोष्ठागार, पुर और अंतःपुर की स्वयं प्रत्युप्रेक्षणा (निरीक्षण) करता हुआ, प्रत्युप्रेक्षणा करता हुआ विहरण कर रहा था। ५९. उस शिव राजा के एक बार किसी मध्य-रात्रि में राज्य-धुरा का चिन्तन करते हुए इस प्रकार का आध्यात्मिक, स्मृत्यात्मक, अभिलाषात्मक, मनोगत संकल्प उत्पन्न हुआ-इस समय मेरे पूर्वकृत, पुरातन, सु-आचरित, सु-पराक्रांत, शुभ और क्रांत, शुभ कल्याणकारी कर्मों का कल्याणदायी फल मिल रहा है, जिससे मैं चांदी, सोना, धन, धान्य, पुत्र, पशु तथा राज्य से बढ़ रहा हूं। इसी प्रकार राष्ट्र, बल, वाहन, कोष, कोष्ठागार, पुर और अंतःपुर से बढ़ रहा है। विपल वैभव धन, सोना. रत्न. मणि मोती. शंख, शिला, प्रवाल, लालरत्न (पद्म-राग मणि) और श्रेष्ठसार-इन वैभवशाली द्रव्यों से अतीव-अतीव वृद्धि कर रहा हूं, तो क्या मैं पूर्वकृत पुरातन सु-आचरित, सु-पराक्रान्त, शुभ और कल्याणकारी कर्मों का केवल क्षय करता हुआ विहरण कर रहा हूं? इसलिए जब तक मैं चांदी से वृद्धि कर रहा हूं यावत् इन वैभवशाली द्रव्यों से अतीव-अतीव वृद्धि कर रहा हूं और जब तक सामंत राजा वश में रहते हैं तब तक मेरे लिए श्रेय है-दूसरे दिन उषाकाल में पौ फटने पर यावत् सहस्र-रश्मि दिनकर सूर्य के उदित और तेज से देदीप्यमान होने पर बहुत सारे तवा, लोह-कडाह, कडछी, ताम्रपात्र आदि तापस-भंड बनवा कर, कुमार शिवभद्र को राज्य में स्थापित कर, उन बहुत तवा, लोह-कडाह, कडछी, ताम्रपात्र आदि तापस-भंड को लेकर जो इस गंगा के किनारे वानप्रस्थ तापस रहते हैं (जैसे-अग्निहोत्रिक, वस्त्रधारी, भूमि पर सोने वाले जैसे उववाई में वक्तव्यता है यावत् पंचाग्नि तप के द्वारा अंगारों स पक्व, लोह की कड़ाही में पक्व, काष्ठ से
४०९