________________
भगवती सूत्र
श. १० : उ. ४ : सू. ४७-५२ श्यामहस्ती! उस काल और उस समय में इसी जम्बूद्वीप द्वीप में भारतवर्ष में काकंदी नामक नगरी थी-वर्णक। उस काकंदी नगरी में त्रायस्त्रिंशक-तैतीस परस्पर सहाय्य करने वाले गृहपति श्रमणोपासक रहते थे-सम्पन्न यावत् बहुजन के द्वारा अपरिभवनीय, जीव-अजीव को जानने वाले, पुण्य-पाप के मर्म को समझने वाले यावत् यथा-परिगृहीत तपःकर्म के द्वारा
अपने आपको भावित करते हुए रह रहे थे। । ४८. वे तैतीस परस्पर सहाय्य करने वाले गृहपति श्रमणोपासक पहले उग्र, उग्रविहारी, संविग्न, संविग्नविहारी हुए उसके पश्चात् पार्श्वस्थ, पार्श्वस्थ-विहारी, अवसन्न, अवसन्नविहारी, कुशील, कुशीलविहारी, यथाछंद, यथाछंदविहारी हो गए। वे बहुत वर्षों तक श्रामण्य-पर्याय का पालन कर, अर्धमासिकी संलेखना से शरीर को कृश बना, अनशन के द्वारा तीस-भक्त (चौदह दिन) का छेदन कर उस स्थान की आलोचना-प्रतिक्रमण किए बिना कालमास में काल (मृत्यु) को प्राप्त कर असुरकुमारराज असुरेन्द्र चमर के त्रायस्त्रिंशक-देव के रूप में
उपपन्न हुए। ४९. भंते! जिस समय वे काकंदक त्रायस्त्रिंशक परस्पर सहाय्य करने वाले गृहपति श्रमणोपासक असुरकुमारराज असुरेन्द्र चमर के त्रायस्त्रिंशक देव के रूप में उपपन्न हुए। भंते! क्या उस समय से इस प्रकार कहा जाता है असुर-कुमारराज असुरेन्द्र चमर के त्रायस्त्रिंशक-देव त्रायस्त्रिंशक-देव हैं? श्यामहस्ती अनगार के इस प्रकार कहने पर भगवान् गौतम शंकित, कांक्षित और विचिकित्सित हो गए। वे उठने की मुद्रा में उठे, उठकर श्यामहस्ती अनगार के साथ जहां श्रमण भगवान् महावीर थे, वहां आए, वहां आकर श्रमण भगवान् महावीर को वंदन-नमस्कार किया, वंदन-नमस्कार कर इस प्रकार बोले५०. भंते! क्या असुरकुमारराज असुरेन्द्र चमर के त्रायस्त्रिंशक-देव त्रायस्त्रिंशक-देव हैं?
हां, है।
५१. भंते! यह किस अपेक्षा से कहा जा रहा है इसी प्रकार सर्व वक्तव्य है यावत् भंते! जिस समय से वे काकंदक त्रायस्त्रिंशक-तैतीस परस्पर सहाय्य करने वाले गृहपति श्रमणोपासक असुरकुमारराज असुरेन्द्र चमर के त्रायस्त्रिंशक देव के रूप में उपपन्न हुए, भंते! उस समय से क्या इस प्रकार कहा जा रहा है-असुरकुमारराज असुरेन्द्र चमर के त्रायस्त्रिंशक-देव त्रायस्त्रिंशक-देव हैं? यह अर्थ संगत नहीं है। गौतम! असुरकुमारराज असुरेन्द्र चमर के त्रायस्त्रिंशक-देवों का शाश्वत नामधेय प्रज्ञप्त है-वह कभी नहीं था, कभी नहीं है और कभी नहीं होगा, ऐसा नहीं है वह था, है और होगा वह ध्रुव, नियत, शाश्वत, अक्षय, अव्यय, अवस्थित और नित्य है। अव्युच्छित्ति-नय की दृष्टि
से कुछ च्यवन करते हैं, कुछ उपपन्न हो जाते हैं। ५२. भंते ! वैरोचनराज वैरोचनेन्द्र बलि के त्रायस्त्रिंशक-देव त्रायस्त्रिंशक-देव हैं?
हां, हैं।
३९५