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भगवती सूत्र
श. १० : उ. २ : सू. १४-२१
की तरंग में स्थित नहीं है, उस संवृत अनगार के ऐर्यापथिकी क्रिया होती है, सांपरायिकी क्रिया नहीं होती ।
योनि - पद
१५. भंते! योनि के कितने प्रकार प्रज्ञप्त हैं ?
गौतम ! योनि के तीन प्रकार प्रज्ञप्त हैं, जैसे- शीत, उष्ण और शीतोष्ण । इस प्रकार योनि - पद (पण्णवणा पद ९) निरवशेष वक्तव्य है।
वेदना-पद
१६. भंते! वेदना के कितने प्रकार प्रज्ञप्त हैं ?
गौतम ! वेदना के तीन प्रकार प्रज्ञप्त हैं, जैसे- शीत, उष्ण, शीतोष्ण । इसी प्रकार वेदना - पद ( पण्णवणा पद ३५) वक्तव्य है यावत्
१७. भंते! क्या नैरयिक दुःख का वेदन करते हैं ? सुख का वेदन करते हैं ? अदुःख असुख का वेदन करते हैं ?
गौतम ! दुःख का वेदन भी करते हैं, सुख का वेदन भी करते हैं, अदुःख - असुख का वेदन भी करते हैं ।
१८. मासिकी भिक्षु-प्रतिमा प्रतिपन्न अनगार, जो नित्य व्युत्सृष्ट- काय और त्यक्त - देह है, के अनेक परीषह—उपसर्ग उत्पन्न होते हैं, जैसे- दिव्य, मानुषिक अथवा तिर्यग्योनिक। वह इन उत्पन्न परीषहों को सम्यक् सहन करता है, उनकी क्षमा, तितिक्षा और अधिसहन करता है । इस प्रकार मासिकी भिक्षुप्रतिमा निरवशेष वक्तव्य है, जैसे-दसाओ (७/४-२५) में यावत् आराधित होती है ।
अकृत्य-स्थान- प्रतिसेवन-पद
१९. भिक्षु किसी अकृत्य स्थान का सेवन कर उस स्थान की आलोचना-प्रतिक्रमण किए बिना काल (मृत्यु) को प्राप्त करता है, उसके आराधना नहीं होती। जो उस स्थान की आलोचना-प्रतिक्रमण कर काल को प्राप्त होता है, उसके आराधना होती है।
२०. भिक्षु किसी अकृत्य स्थान का प्रतिसेवन कर इस प्रकार सोचता है- मैं पश्चात् चरमकाल के समय में इस स्थान की आलोचना करूंगा, प्रतिक्रमण करूंगा, निंदा करूंगा, गर्हा करूंगा, विवर्तन करूंगा, विशोधन करूंगा, पुनः न करने के लिए अभ्युत्थान करूंगा। जो उस स्थान की आलोचना-प्रतिक्रमण किए बिना काल को प्राप्त करता है, उसके आराधना नहीं होती । जो उस स्थान की आलोचना-प्रतिक्रमण कर काल को प्राप्त करता है, उसके आराधना होती है ।
२१. भिक्षु किसी अकृत्य स्थान का प्रतिसेवन कर इस प्रकार सोचता है - यदि श्रमणोपासक कालमास में काल को प्राप्त कर किसी देवलोक में देवरूप में उपपन्न होते हैं तो क्या मैं अणपन्निक (व्यन्तर) देवत्व को भी प्राप्त नहीं होऊंगा ? ऐसा सोचकर जो उस स्थान की आलोचना-प्रतिक्रमण किए बिना काल को प्राप्त करता है, उसके आराधना नहीं होती। जो
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