________________
श. १० : उ. १,२ : सू. ९-१४
भगवती सूत्र ९. भंते! औदारिक शरीर कितने प्रकार के प्रज्ञप्त हैं?
इस प्रकार अवगाहन-संस्थान पद (पण्णवणा, २१) निरवशेष वक्तव्य है यावत् अल्पबहुत्व तक। १०. भंते! वह ऐसा ही है। भंते! वह ऐसा ही है।
दूसरा उद्देशक
संवृत का क्रिया-पद ११. राजगृह नगर यावत् गौतम ने इस प्रकार कहा-भंते ! कषाय की तरंग में स्थित संवृत अनगार पुरोवर्ती रूपों को देखता है, पृष्ठवर्ती रूपों को देखता है, पार्श्ववर्ती रूपों को देखता है, ऊर्ध्ववर्ती रूपों को देखता है, अधोवर्ती रूपों को देखता है। भंते! क्या उसके ऐपिथिकी क्रिया होती है? सांपरायिकी क्रिया होती है? गौतम! कषाय की तरंग में स्थित संवृत अनगार पुरोवर्ती रूपों को देखता है, पृष्ठवर्ती रूपों को देखता है, पार्श्ववर्ती रूपों को देखता है, ऊर्ध्ववर्ती रूपों को देखता है, अधोवर्ती रूपों को देखता है, उसके ऐर्यापथिकी क्रिया नहीं होती, सांपरायिकी क्रिया होती है। १२. भंते! यह किस अपेक्षा से कहा जा रहा है कषाय की तरंग में स्थित संवृत अनगार के यावत् सांपरायिकी क्रिया होती है? गौतम! जिसके क्रोध, मान, माया और लोभ व्युच्छिन्न हो जाते हैं, उसके ऐपिथिकी क्रिया होती है, जिसके क्रोध, मान, माया और लोभ व्युच्छिन्न नहीं होते, उसके सांपरायिकी क्रिया होती है। यथासूत्र-सूत्र के अनुसार चलने वाले के ऐर्यापथिकी क्रिया होती है। उत्सूत्र-सूत्र के विपरीत चलने वाले के सांपरायिकी क्रिया होती है। वह (जिसके क्रोध, मान, माया और लोभ व्यच्छिन्न नहीं होते) उत्सत्र ही चलता है। इस अपेक्षा से यह कहा जा रहा है कषाय
की तरंग में स्थित संवृत अनगार के सांपरायिकी क्रिया होती है। १३. भंते! जो कषाय की तरंग में स्थित नहीं है, वह संवृत अनगार पुरोवर्ती रूपों को देखता है यावत् भंते! क्या उसके ऐर्यापथिकी क्रिया होती है? पृच्छा। गौतम! जो कषाय की तरंग में स्थित नहीं है, वह संवृत अनगार पुरोवर्ती रूपों को देखता है
यावत् उसके ऐर्यापथिकी क्रिया होती है, सांपरायिकी क्रिया नहीं होती। १४. भंते! यह किस अपेक्षा से कहा जा रहा है जो कषाय की तरंग में स्थित नहीं है, उस
संवृत अनगार के ऐापथिकी क्रिया होती है, साम्परायिकी क्रिया नहीं होती? गौतम! जिसके क्रोध, मान, माया और लोभ व्युच्छिन्न हो जाते हैं उसके ऐर्यापथिकी क्रिया होती है। जिसके क्रोध, मान, माया और लोभ व्युच्छिन्न नहीं होते, उसके सांपरायिकी क्रिया होती है। यथासूत्र-सूत्र के अनुसार चलने वाले के ऐर्यापथिकी क्रिया होती है, उत्सूत्र-सूत्र के विपरीत चलने वाले के सांपरायिकी क्रिया होती है। वह (जिसके क्रोध, मान, माया और लोभ व्युच्छिन्न होते हैं) यथासूत्र ही चलता है। इस अपेक्षा से यह कहा जा रहा है जो कषाय
३९०